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________________ सूत्र ११ । ] समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १९९ महामन्दर - सुदर्शन मेरुके दक्षिणोत्तर दिग्भागमें अनेक कोटीकोटी लाख योजनमें आवास हैं, और दक्षिण अर्धके अधिपति चमरादिकोंके तथा उत्तर अर्धके अधिपति बलि आदिकोंके भवन भी यथायोग्य बने हुए हैं । इनमेंसे भवन रत्नप्रभा पृथिवीमें मुटाईका जितना प्रमाण है, उसके ठीकै अर्ध भागके बीचमें बने हुए हैं । उन भवनोंमें निवास करनेके कारण ही इन प्रथम निकायवाले देवोंको भवनवासी कहते हैं । भाष्यम् — भवप्रत्ययाञ्चैषामिमा नामकर्मनियमात्स्वजातिविशेषनियता विक्रिया भवन्ति । तद्यथा - गम्भीराः श्रीमन्तः काला महाकायाः रत्नोत्कटमुकुटभास्वराश्चूडामणिचिन्हा असुरकुमारा भवन्ति । शिरोमुखेष्वधिक प्रतिरूपाः कृष्णश्यामा मृदुललितगतयः शिरस्सु फणिचिन्हा नागकुमाराः । स्निग्धा भ्राजिष्णवोऽवदाता वज्रचिन्हा विद्युत्कुमाराः । अधिकरूपग्रीवोरस्काः श्यामावदाताः गरुडचिह्नाः सुपर्णकुमाराः । मानोन्मानप्रमाणयुक्ता भास्वन्तोऽवदाता घटचिह्ना अग्निकुमारा भवन्ति । स्थिरपीनवृत्तगात्रा निमग्नोदरा अश्वचिह्ना अवदाता वातकुमाराः । स्निग्धाः स्निग्धगम्भीरानुनाद महास्वनाः कृष्णा वर्धमानचिह्नाःस्तनितकुमाराः । ऊरुकटिष्वधिकप्रतिरूपाः कृष्णश्यामाः मकरचिह्ना उदधिकुमाराः । उरःस्कन्धबाह्रग्रहस्तेष्वधिक प्रतिरूपाः श्यामावदाताः सिंहचिह्ना द्वीपकुमाराः । जङ्घाग्रपादेष्वधिकप्रतिरूपाः श्यामा हस्तिचिह्ना दिक्कुमाराः सर्वे विविधवस्त्राभरण प्रहरणावरणा भवन्तीति । - अर्थ -- इन देवोंके विभिन्न प्रकार की ये विक्रियाएं जो हुआ करती हैं, वे भवप्रत्यय हैं । उस भव- पर्यायको धारण करना ही उनका कारण है, न कि तपोऽनुष्ठानादिक । नामकर्मके नियमानुसार और अपनी अपनी जातिविशेषमें जैसी कुछ नियत हैं, उसके अनुरूप ही उनके विक्रियाएं हुआ करती हैं । यथा:- - असुरकुमार गम्भीर - घनशरीर के धारक श्रीमान्- सम्पूर्ण अंग और उपाङ्गोंके द्वारा सुन्दर कृष्ण वर्ण महाकाय और रत्नोंसे उत्कट मुकुटके द्वारा दैदीप्यमान हुआ करते हैं । इनका चिन्ह चूडामणि रत्न है । अर्थात् उनकी यह विक्रिया आङ्गोपाङ्गनामकर्म निर्माणनामकर्म और वर्णादिनामकर्मके उदयसे अपनी जातिविशेषताको करने या दिखाने वाली उसके अनुरूप हुआ करती है । इसी तरह नागकुमारादिकके विषय में समझना चाहिये । नागकुमार शिर और मुखक भागोंमें अधिक प्रतिरूप कृष्णश्याम - अत्यधिक श्यामवर्णवाले एवं मृदु और ललित गतिवाले हुआ करते हैं । इनके शिरोंपर सर्पका चिन्ह हुआ करता है । स्निग्ध प्रकाशशील उज्ज्वल शुक्लवर्णके धारण करनेवाले विद्यत्कुमार हुआ करते हैं । इनका चिन्ह वज्र है । • सुपर्णकुमार ग्रीवा और वक्षःस्थलमें अति सुन्दर श्याम किन्तु उज्ज्वल - शुद्ध वर्णके धारक हुआ · १ - धातकीखण्ड आदि के मेरुको कोई न समझ ले, इसके लिये ही महामन्दर शब्दका प्रयोग किया है । यहाँ पर महामेरु दक्षिणोत्तर दिग्भाग में आवास और भवनोंका होना लिखा है, परन्तु टीकाकार सिद्धसेनगणी लिखते हैं, कि आप आगममें रत्नप्रभा पृथिवीकी मोटाईके ऊपर नीचेके एक एक हजारको छोड़कर मध्यके ७८ हजार योजन मोटे भाग में ही भवनों का होना सर्वत्र लिखा है । २-भाष्यकारने नपुंसक लिंगवाले अर्धशब्दका प्रयोग किया है, जिससे बराबर के आधे आधे टुकड़ेका अर्थ होता है, क्योंकि " अर्धे समांशे " 'तुल्यभागेऽ ऐसा कोषका नियम है । " Jain Education International For Private & Personal Use Only "" www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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