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________________ सूत्र १२ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २०१ इनको व्यन्तर क्यों कहते हैं ? उत्तर-वि-विविध प्रकारका है, अन्तर-आवसननिवास जिनका उनको व्यन्तर कहते हैं। क्योंकि यद्यपि रत्नप्रभा पृथिवीके एक हजार योजन मोटे पहले रत्नकाण्डकके ऊपर नीचेके सौ सौ योजनके भागको छोड़कर मध्यके आठसौ योजन मोटे भागमें इन व्यन्तरोंका जन्मस्थान है, परन्तु वहाँ उत्पन्न होकर भी ये अधः ऊर्ध्व और तिर्यक् तीनों लोकमें अपने भवन और अपने नगर तथा अपने आवासोंमें निवास किया करते हैं । बालकके समान इनका स्वभाव अनवस्थित हुआ करता है, और स्वतन्त्र रूपसे सर्वत्र ये अनियत गमनागमन करनेवाले हैं । अतएव इनको व्यन्तर कहते हैं। तथा अधः तिर्यक् और ऊर्ध्व तीनों ही लोकोंका स्पर्श करते और स्वतन्त्ररूपसे प्रायः अनियत गमन-प्रचार करते हैं, फिर भी कदाचित् पराभियोग-इन्द्रकी आज्ञा अथवा चक्रवर्ती आदि पुरुषोंकी आज्ञासे भी ये गमनागमन-प्रचार किया करते हैं । कोई कोई व्यन्तर नौकरोंकी तरह मनुष्योंकी सेवा भी किया करते हैं । नाना प्रकारकी पर्वतोंकी कन्दराओंमें, वनोंमें, या किन्हीं विवरस्थानोंमें भी निवास किया करते हैं । अतएव इनको व्यन्तर कहते हैं। भावार्थ-व्यन्तर शब्दके कई अर्थ हैं। वि-विविध प्रकारका है अन्तर-निवास जिनका उनको व्यन्तर कहते हैं । अथवा वि-विगत है, अन्तर-भेद जिनका उनको व्यन्तर कहते हैं। क्योंकि इनमें मनष्योंसे अविशिष्टता भी पाई जाती है। यद्वा गो आदिक संज्ञा ओंकी तरह रूढीसे ही दूसरे देवनिकायका नाम व्यन्तर ऐसा प्रसिद्ध है। इनके किन्नर किम्पुरुष आदि आठ भेद हैं, जैसा कि ऊपर गिनाया जा चुका है। उन किन्नरादिकोंके भी उत्तरभेद कितने कितने और कौन कौन से हैं, सो बतानेके लिये भाष्यकार कहते हैं:-- भाष्यम्-तत्र किन्नरा दशविधाः । तद्यथा-किन्नराः किम्पुरुषाः किम्पुरुषोत्तमाः किन्नरोत्तमा हृदयंगमा रूपशालिनोऽनिन्दिता मनोरमा रतिप्रिया रतिश्रेष्ठा इति । किम्पुरुषा दशविद्याः तद्यथा-पुरुषाः सत्पुरुषाः महापुरुषाः पुरुषवृषभाः पुरुषोत्तमाः अतिपुरुषा मरुदेवाः मरुतो मेरुप्रभा यशस्वन्त इति । महोरगादशविधाः । तद्यथा-भुजगा भोगशालिनो महाकाया अतिकायाः स्कन्धशालिनो मनोरमा महावेगा महेष्वक्षाः मेरुकान्ता भास्वन्त इति। गान्धर्वा द्वादशविधाः । तद्यथा-हाहा हूहू तुम्बुरवो नारदा ऋषिवादिकाः भूतवादिकाः कादम्बाः महाकादम्बा रैवता विश्वावसवो गीतरतयो गीतयशस इति । यक्षास्त्रयोदशविधाः । तद्यथा-पूर्णभद्राः माणिभद्राश्वेतभद्रा हरिभद्राः सुमनोभद्रा व्यतिपातिकभद्राः सुभद्राः सर्वतोभद्रा मनुष्ययक्षा वनाधिपतयो वनाहारा रूपयक्षा यक्षोत्तमा इति । सप्तविधा राक्षसाः। तद्यथा-भीमा महाभीमा विघ्ना विनायका जलराक्षसा राक्षसराक्षसा ब्रह्मराक्षसा इति। भूता नवविधाः । तद्यथा-सुरूपा-प्रतिरूपा अतिरूपा भूतोत्तमाः स्कन्दिका महास्कन्दिका महावेगाः प्रतिच्छन्ना आकाशगा इति । पिशाचाः पंचदशविधाः। तद्यथा-कूष्मण्डाः पटकाः जोषा आह्नका कालाः महाकालाश्चौक्षा अचौक्षास्तालपिशाचा मुखरपिशाचा अधस्तारका देहा महाविदेहास्तूष्णीका वनपिशाचा इति ॥ अर्थ-व्यन्तरोंके आठ भेद जो बताये हैं, उनमें सबसे पहला भेद किन्नर है। उसके दशभेद हैं। यथा-किन्नर १ किम्पुरुष २ किम्पुरुषोत्तम ३ किन्नरोत्तम ४ हृदयंगम ५ रूप. २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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