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________________ १९६ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ चतुर्थोऽध्यायः जो देवियाँ हुआ करती हैं, उनको अपरिग्रहीत वेश्याओंके स्थानापन्न माना है, और उन्हें अप्सरा कहते हैं । उनकी स्थिति आदिका विशेष वर्णन टीका -ग्रन्थोंमें देखना चाहिये, जिससे यह मालूम हो सकता है, कि सौधर्म ऐशानमेंसे किस कल्प में उत्पन्न होनेवाली और कितनी स्थितिवाली देवियाँ किस कल्पवासीके उपभोग योग्य हुआ करती हैं । सानत्कुमारसे अच्युत कल्प पर्यन्त देवों के प्रवीचारका सद्भाव जो बताया है, वह मनुष्योंके समान शारीरिक नहीं है । किंतु वह क्रमसे चार प्रकारका है— स्पार्शन दार्शनिक शाब्दिक और मानसिक । इनमें से किस किस कल्पमें कौन कौनसा प्रवीचार पाया जाता है, सो ऊपर बताया जा चुका है । केवल स्पर्शमात्र से अथवा देखने मात्र से या शब्दमात्रसे या शब्दमात्रको सुनकर यद्वा मनके संकल्पमात्रसे जो प्रवीचार हुआ करता है, उनमें उत्तरोत्तर सुखकी मात्रा कम होगी, ऐसी उन लोगोंको शंका हो सकती है, जो कि मनुष्यों के समान काय सम्भोग के द्वारा रेतःस्खलनमें ही मैथुन सुखका अनुभव करनेवाले हैं । परन्तु यह बात नहीं है, उन उत्तरोत्तर कल्पवासीदेवोंमें सुखकी मात्रा अधिकाधिक है, क्योंकि प्रवीचार वास्तवमें सुख नहीं है, वह एक प्रकारकी वेदना है । वह जहाँ जहाँपर जितने जितने प्रमाण में कम हो, सुखकी मात्रा वहाँ वहाँपर उतने उतने ही प्रमाणमें अधिकाधिक समझनी चाहिये । जो कल्पातीत हैं, वे सर्वथा अप्रवीचार होनेसे मानसिक प्रवीचार करनेवालों की अपेक्षा भी अधिक सुखी हैं । जैसा कि आगे के सूत्रसे मालूम होगा | 1 सौधर्म और ऐशान स्वर्गके प्रवीचारका वर्णन पहले कर चुके हैं । और उसके बादका सानत्कुमार कल्पसे लेकर अच्युत कल्पतकके प्रवीचारका इस सूत्र में वर्णन किया है | क्रमानुसार अदेवीक और अप्रवीचार देवोंका वर्णन करनेके लिये सूत्र कहते हैं: -- सूत्र - परेऽप्रवीचाराः ॥ १० ॥ भाष्यम् – कल्पोपपन्नेभ्यः परे देवा अप्रवीचारा भवन्ति । अल्पसंक्लेशत्वात् स्वस्थाः शीतीभूताः । पञ्चविधप्रवीचारोद्भवादपि प्रीतिविशेषादपरिमितगुणप्रीतिप्रकर्षाः परमसुखतृप्ता एव भवन्ति ॥ 1 अर्थ —- ऊपरके सूत्रमें वैमानिक देवोंमेंसे कल्पोपन्न देवों के प्रवीचारका वर्णन किया गया है, उससे आगेके -नव ग्रैवैयक नव अनुदिश और विजयादिक पाँच अनुत्तरवासी देव यहाँपर पर शब्दसे लिये हैं । ये देव प्रवीचारसे सर्वथा रहित माने हैं । इनके संक्लेश परिणाम अत्यल्प हैं-मैथुन संज्ञाके परिणाम इनके नहीं हुआ करते, अतएव ये स्वस्थ हैंआत्मसमाधिसे उत्पन्न हुए अनुपम सुखका ही ये उपभोग किया करते हैं, इनका मोहनीय कर्म अत्यंत कृश हो जाता है, इनके क्रोधादि कषाय भी अति मंद रहते हैं, अतएव इनको शीतीभूत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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