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सूत्र ९।]
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । तथा विलाससे युक्त हैं, एवं जिनमें उज्ज्वल और मनोज्ञ वेष-वस्त्रपरिधान-पोशाक तथा आभरण पाये जाते हैं । उन देवियोंके ऐसे मनोहर और सुन्दर शृङ्गार तथा वेष भूषासे युक्त रूपोंको देखकर ही वे देव प्रीतिको प्राप्त होजाते हैं, और इतने-देखने मात्रसे ही उनकी वहकामकी आशा भी निवृत्त हो जाती है ।
इसी तरह महाशक और सहस्रार कल्पके देवोंके जब प्रवीचारकी आकाङ्क्षा उत्पन्न होती है, तब उनकी नियोगिनी देवियाँ उनको वैसा-काम सुखका अभिलाषी जानकर उनके निकट आती हैं, और ऐसे शब्दोंका उच्चारण करती हैं, कि जो श्रवण विषयके सुखको देनेवाले
और अत्यन्त मनोहर हैं, जिनमें शृङ्गारका उदार और उच्च कुलके योग्य विलास अभिलाप छेद तल ताल और आभरणोंका शब्द मिला हुआ है । एवं जो कभी हास्यके विषयको लेकर और कभी कथोपकथनके सम्बन्धको लेकर तथा कभी गायनके प्रकरणको लेकर प्रवृत्त हआ करते हैं। उन देवियोंके उन इच्छाके अनुरूप शब्दोंको सुनते ही वे देव प्रीतिको प्राप्त हो जाते हैं और उनकी वह आशा भी उसीसे निवृत्त हो जाती है ।
इसा तरह आनत प्राणत आरण और अच्युत कल्पवर्ती देव जिस समय प्रवीचारका विचार ही करते हैं, और देवियोंका संकल्प करते हैं, उसी समय-उस संकल्पके करते ही वे देव प्रीतिको प्राप्त हो जाते हैं, और उस संकल्प मात्रसे ही उनकी वह आशा निवृत्त हो जाती है ।
इन प्रवीचारोंके कारण आगे आगेके-ऊपर ऊपरके कल्पोंमें रहनेवाले देव अधिकाधिक विशेष प्रीतिको धारण करनेवाले हैं, और उनकी यह प्रीति उत्तरोत्तर अनुपम महत्वको रखनेवाली है। क्योंकि ऊपर ऊपरके उन प्रवीचार करनेवाले देवोंमें प्रवीचारके संकल्परूप परिणाम अल्प-मन्द मन्दतर हुआ करते हैं । परन्तु वे स्थिति और प्रभावकी अपेक्षा उत्तरोत्तर अधिक हैं, जैसा कि आगे चलकर लिखा जायगा।।
भावार्थ-ऊपर जो तीन प्रकारके देव बताये हैं, उनमें से यह उन देवोंके स्वरूपका वर्णन है, जो कि अदेवीक और सप्रवीचार हैं । यह बात भी ऊपर लिखी जा चुकी है, कि कल्पवासिनी देवियाँ जन्मके द्वारा सौधर्म और ऐशान कल्पमें ही उत्पन्न हुआ करती हैं। ऊपरके कल्पोंमें वे उत्पन्न नहीं हुआ करतीं। अतएव उन देवोंको अदेवीक माना है। किन्तु उनमें प्रवीचार पाया जाता है । उन देवोंको मैथुनकी इच्छा होते ही उनकी नियोगिनी देवियाँ उनके पास सौधर्म ऐशान कल्पसे आकर उपस्थित हो जाती हैं । उपस्थित होनेवाली
१-अध्याय ४ सूत्र २१ । २-सदेवीक सप्रवीचार, अदेवीक सप्रवीचार, अदेवीक अप्रवीचार । दूसरे प्रकारको अदेवीक कहनेका यह अभिप्राय नहीं है, कि उनके देवियाँ ही नहीं हैं । किन्तु तात्पर्य यह है कि वे मनुष्यों के समान अथवा ऐशान पर्यन्त देवोंके समान कायसे क्रीड़ा करनेवाले नहीं हैं, और उनके नियोगिनी-परिग्रहीता देविया नहीं हैं । अतएव अदेवीक शब्दमें देवियोंके निषेधका पर्युदास रूप अर्थ करना चाहिये।
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