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________________ १९४ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालाया [चतुर्थोऽध्यायः कल्पमें ही देवियाँ जन्मके द्वारा उत्पन्न हुआ करती हैं, इसके आगे नहीं । अंतएव जन्मकी अपेक्षा देवियोंका अस्तित्व ऐशान कल्पपर्यन्त ही समझना चाहिये। दूसरे प्रकारके देव वे बताये हैं, जिनके कि देवियोंका सद्भाव तो नहीं है, परन्तु प्रवीचारकी सत्ता पाई जाती है । उनके मैथुन सेवन किस प्रकारसे हुआ करता है, इस बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं: सूत्रम्-शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचारा दयोदयोः ॥९॥ ____भाष्यम्-ऐशानादूर्ध्व शेषाः कल्पोपपन्ना देवा द्वयोर्द्वयोः कल्पयोः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचारा भवन्ति यथासङ्घ-यम् । तद्यथा सनत्कुमारमाहेन्द्रयोर्देवान् मैथुनसुखप्रेप्सूनुत्पन्नास्थान विदित्वा देव्य उपतिष्ठन्ते। ताः स्पृष्ट्वैव च ते प्रीतिमुपलभन्ते विनिवृत्तास्थाश्च भवन्ति। तथा ब्रह्मलोकलान्तकयोर्दैवान् एवंभूतोत्पन्नास्थान विदित्वा देव्यो दिव्यानि स्वभावभास्वराणि सर्वाङ्गमनोहराणि शृङ्गारोदाराभिजाताकारविलासान्युज्ज्वलचारुवषाभरणानि स्वानि रूपाणि दर्शयन्ति । तानि दृष्ट्वैव ते प्रीतिमुपलभन्ते निवृत्तास्थाश्च भवन्ति ॥ तथा महाशुक्रसहस्रारयोर्देवानुत्पन्नप्रवीचारास्थान् विदित्वा देव्यः श्रुतिविषयसुखानत्यन्तमनोहरानश्रृङ्गारोदाराभिजातविलासाभिलाषच्छेदतलतालाभरणरवमिश्रान् हसितकथितनीतशब्दानुदीरयन्ति । तान् श्रुत्वैव प्रीतिमुपलभन्ते निवृत्तास्थाश्च भवन्ति । आनत प्राणतारणाच्युतकल्पवासिनो देवाः प्रवीचारायोत्पन्नास्थाः देवीः संकल्पयन्ति । संकल्पमात्रेणैव च ते परां प्रीतिमुपलभन्ते विनिवृत्तास्थाश्च भवन्ति ॥ एभिश्च प्रवीचारैः परतः परतः प्रीति प्रकर्षविशेषोऽनुपमगुणो भवति, प्रवीचारिणामल्पसक्लेशत्वात् । स्थितिप्रभावादिभिरधिका इति वक्ष्यते । (अ०४ सूत्र २१) अर्थ-कल्पोपपन्न देवोंमें सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंको छोड़कर बाकीके जो देव हैं, वे यहाँपर शेष शब्दसे कहे गये हैं । इन देवोंमें दो दो कल्पके देवोंके क्रमसे स्पर्श रूप शब्द और मनके द्वारा प्रवीचार हुआ करता है । वह किस प्रकारसे होता है सो बताते हैं ____ सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पमें जो उत्पन्न होनेवाले हैं, उन देवोंके जब मैथुन सुखको प्राप्त करनेकी इच्छा होती है, तब उनकी नियोगिनी देवियाँ उनको वैसा जानकर उनके निकट आकर उपस्थित होती हैं । वे देव उन आई हुई देवियोंका केवल स्पर्श करके ही प्रीतिको प्राप्त हो जाते हैं, और उनकी वह कामवासनाकी आशा उसीसे निवृत्त हो जाती है। इसी प्रकार ब्रह्मलोक और लान्तक कल्पवासी देवोंके जब मैथुन संज्ञा उत्पन्न होती है, तब उनको वैसा-मैथुन सुखके लिये आशावान् जानकर उनकी नियोगिनी देवियाँ उनके निकट आकर उपस्थित होती हैं, और वे उन्हें अपने ऐसे रूप दिखाती हैं। जो कि दिव्य और स्वभावसे ही भास्वर-प्रकाशमान तथा सर्वाङ्गमें मनोहर हैं, जो शृङ्गारसम्बन्धी उदार और अभिनात-उत्तम कुलके योग्य कहे और माने जा सकनेवाले आकार १-“यस्माद् भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्क सौधमैशानकल्पेषु जन्मनोत्पद्यन्ते देव्यः, न परत इति"(सिद्धसेन गणी) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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