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सूत्र ७.८ 1] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
१९३ भावार्थ-यहाँपर लेश्यासे अभिप्राय द्रव्यलेश्याका है । अर्थात् भवनवासी और व्यन्तरनिकायके देवोंके शरीरका वर्ण कृष्ण नील कापोत और पीत इन चार लेश्याओंमेंसे किसी भी एक लेश्यारूप हो सकता है। भावलेश्याके विषयमें कोई नियम नहीं हैं। दोनों निकायके देवोंके छहों भावलेश्या हो सकती हैं।
उक्त चारों निकायके देव तीन भागोंमें विभक्त किये जा सकते हैं । एक तो वे कि जिनके देवियाँ भी हैं और प्रवीचार भी है, दूसरे वे कि जिनके देवियाँ तो नहीं हैं, परन्तु प्रवीचार पाया जाता है। तीसरे वे कि जिनके न देवियाँ हैं और न प्रवीचार ही है। इनमें से वे देव कौनसे हैं, कि जिनके देवियाँ भी हैं और प्रवीचार भी है ? उन्हींको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं:
सूत्र-कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ॥ ८॥ भाष्यम्-भवनवास्यादयो देवा आ ऐशानात् कायप्रवीचारा भवन्ति । कायेन प्रवीचार एषामिति कायप्रवीचाराः। प्रवीचारो नाम मैथुनविषयोपसेवनम् । ते हि संक्लिष्टकर्माणो मनुष्यवन्मैथुन सुखमनुप्रलीयमानास्तीत्रानुशयाः कायसंक्लेशजं सर्वाङ्गीणं स्पर्शसुखमवाप्य प्रीतिमुपलभन्त इति ॥
__ अर्थ--काय नाम शरीरका है, और प्रवीचार नाम मैथुन सेवनका है । शरीरके द्वारा स्त्रीसम्भोग आदि जो मैथुन सेवन किया जाता है, उसको कायप्रवीचार कहते हैं । भवनवासियोंसे लेकर ऐशान स्वर्गतकके देव कायप्रवीचार हैं । वे शरीर द्वारा ही मैथुन विषयका सेवन करते हैं। उनके कर्म अतिक्लेशयुक्त हैं, वे मैथुन सेवनमें अति अनुरक्त रहनेवाले और उसका पुनः सेवन करनेवाले हैं, मैथुनसंज्ञाके उनके परिणाम अतिशय तीब्र रहा करते हैं । अतएव वे शरीरके संक्लेशसे उत्पन्न हुए और सर्वाङ्गीण स्पर्श सुखको मनुष्योंकी तरह पाकरके ही वे प्रीतिको प्राप्त हुआ करते हैं।
भावार्थ-यहाँपर आङ्का मर्यादा अर्थ न करके अभिविधि अर्थ माना है। अतएव ऐशान स्वर्गसे पहले पहले ऐसा अर्थ न करके ऐशानपर्यन्त ऐसा अर्थ करना चाहिये। दूसरी बात .यह है, कि उपर्युक्त कथनके अनुसार इस सूत्रमें दो बातें बतानी चाहिये । एक तो देवियोंका
अस्तित्व और दूसरा प्रवीचारका सद्भाव । कायप्रवीचार शब्दके द्वारा ऐशान पर्यन्तभवनवासी व्यन्तर ज्योतिष्क और सौधर्म ऐशान स्वर्गवासी देवोंके प्रवीचार किस तरहका होता है, सो तो बता दिया । परन्तु देवियोंके अस्तित्वके विषयमें यहाँ कोई उल्लेख नहीं किया है। सो वह " व्याख्यानतो विशेष प्रतिपत्तिः" इस सिद्धान्तके अनुसार आगमके व्याख्यानसे समझ लेना चाहिये । आगममें लिखा है, कि भवनवासी व्यन्तर ज्योतिष्क और सौधर्म ऐशान
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