SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९० रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ चतुर्थोऽध्यायः नीयाः । लोकपाला आरक्षिकार्थचरस्थानीयाः । अनीकाधिपतयो दण्डनायकस्थानीयाः अनीकान्यनीकस्थानीयान्येव । प्रकीर्णकाः पौरजनपदस्थानीयाः। आभियोग्याः दासस्था. नीयाः। किल्विषिका अन्तस्थस्थानीया इति ॥ __अर्थ-ऊपर जो देवोंके चार निकाय बताये हैं, उनमेंप्ते प्रत्येक निकायमें देवोंके दश भेद हुआ करते हैं । अर्थात् चारों निकायोंके देवोंमें दश दश प्रकार हैं। वे दश प्रकार कौनसे हैं सो बताते हैं। इन्द्र सामानिक त्रायस्त्रिंश पारिषद्य आत्मरक्ष लोकपाल अनीक-अनीकाधिपति प्रकीर्णक आभियोग्य और किल्बिषिक। भवनवासी व्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक इन चारों निकायोंके देवोंमें जो सब देवोंकेअपने अपने निकायवर्ती समस्त देवोंके अधिपति-स्वामी हैं, उनको इन्द्र कहते हैं। अमात्य पिता गुरु उपाध्याय आदिके समान जो महान् हैं, जिनमें केवल इन्द्रत्व तो नहीं है-आज्ञा करनेकी योग्यता या अधिकार तो जिनमें नहीं पाया जाता, परन्तु जिनका ऐश्वर्य सब इन्द्रके हा समान होता है, उन देवोंको सामानिक कहते हैं । राज्यमें मन्त्री और पुरोहित जिस प्रकार हुआ करते हैं, उसी प्रकार जो देव उनके समान स्थानपर नियुक्त हैं, उनको त्रायस्त्रिंश कहते हैं। जो मित्रके समान हैं, अथवा सभासदोंके स्थानापन्न हैं, उनको पारिषद्य कहते हैं, । जो हथियार लिये हुए पीठकी तरफ रक्षाके लिये खड़े रहते और स्वामीकी सेवामें सन्नद्ध रहा करते हैं, ऐसे अङ्गरक्षकोंके समान जो देव होते हैं, उनको आत्मरक्ष कहते हैं । जो चोर आदिसे रक्षा करनेवाले कोतवालके समान हैं, उनको लोकपाल कहते हैं। जो सेनापतिके समान हैं, उनको अनीकाधिपति कहते हैं। जो नगरनिवासीके समान हैं-प्रजाके स्थानापन्न हैं, उनको प्रकीर्णक कहते हैं । जो नौकरोंके समान हैं, उनको आभियोग्य कहते हैं। नगर बाह्य रहनेवाले चाण्डालादिके जो समान हैं, उनको किल्विषिक कहते हैं। भावार्थ-जिस प्रकार मर्त्यलोकमें राज्यकी विभूति और उसके अंग हुआ करते हैं, उसी प्रकारकी रचना देवोंमें भी है। इन्द्र राजाके स्थानापन्न है, सामानिक अमात्य और पिता तथा गरु आदिके स्थानापन्न हैं । इसी प्रकार ऊपर लिखे अनुसार दशों भेदोंके विषयमें समझना चाहिये। १-यह सामान्य कथन है। इसका विशेष अपवादरूप कथन आगेके सूत्रमें करेगें, कि व्यन्तर और ज्योतिष्कोंमें आठ ही भेद हैं। २-ये एक एक इन्द्रके प्रति संख्यामें ३३ ही होते हैं । अतएव इनको त्रायस्त्रिंश कहते हैं । ३-अनीक शब्द सूत्रमें आया है, उसीका अर्थ अनीकाधिपति है। अन्यथा दो शब्द माननेपर दशकी संख्या नहीं रह सकती है, ऐसा पहले बता चुके हैं । अतएव स्पष्ट बोध करानेके लिये ही भाष्यकारने एक अनीकाधिपति शब्दकी ही व्याख्या की है । ४ यद्यपि स्वर्गामें यहाँके समान चोरी करनेवाले अथवा युद्धादि करनेवाले शत्र आदि नहीं है, तो भी यह केवल पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त हुई, ऋद्धि विशेषके वैभव और उसके महत्वको प्रकट करता है । जैसे कि किसी महान् पुण्याधिकारी राजाके राज्यमें कभी किसी भी प्रकारका कोई भी उपद्रव नहीं होता, तो भी उसके राज्यमें राज्यके सम्पूर्ण अंग रहते ही हैं, और उनके रहनेको केवल पुण्यजनित वैभव ही कहा जा सकता है । इसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये । अतएव इस वैभवका फल स्थितिका रक्षण और पालन तथा प्रकृष्ट प्रीतिका उत्पन्न करन आदि समझना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy