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सूत्र २-३-४ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
१८९ भावार्थ-वैमानिकदेव दो प्रकारके हैं, कल्पोपपन्न और कल्पातीत । जिनमें वक्ष्यमाण इन्द्र सामानिक आदि भेदोंकी कल्पना पाई जाती है, उन स्वर्गोंको कल्प कहते हैं, और उनमें उपपाद-जन्म धारण करनेवाले देवोंका नाम कल्पोपपन्न है । जिनमें वह कल्पना नहीं पाई जाती, उन स्वर्गों में उत्पन्न होनेवाले देवोंको कल्पातीत कहते हैं । पहले सौधर्म स्वर्गसे लेकर बारहवें अच्युत स्वर्गतकको कल्प कहते हैं। अतएव इनमें उत्पन्न होने वाले देवोंके बारह भेद हैं । बारह स्वर्गों के इन्द्र भी बारह ही हैं । अच्युत स्वर्गसे ऊपरके देव दो तरह के हैं-अवेयकवासी और अनुत्तरवासी । इन दोनों ही तरहके देवोंको अहमिन्द्र कहते हैं, क्योंकि इनमें इन्द्रादिककी कल्पना नहीं है। सब समान ऐश्वर्यके धारक हैं । अतएव वे सभी देव अपने अपनेको इन्द्र ही समझते और मानते हैं । प्रकृतमें वैमानिकदेवोंमेसे अहमिन्द्रोंका ग्रहण अपेक्षित नहीं है । कल्पोपपन्नेपर्यन्त ऐसा कहनेसे और बारह भेद दिखानेसे स्पष्ट होता है, कि प्रकृतमें अच्युत स्वर्ग तकके भेद बताना ही आचार्यको अभीष्ट है।
____ ऊपर कहा जा चुका है, कि बारहवें स्वर्गतक इन्द्रादिककी कल्पना पाई जाती है, इसलिये उसको कल्प कहते हैं । किंतु वह कल्पना कितने प्रकारकी है, सो अभी तक बताई नहीं, अतएव उसके भेदोंको दिखानेके लिये सूत्र कहते हैं:
सूत्र--इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषद्यात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्बिषिकाश्चैकशः ॥ ४॥
भाष्यम्-एकैकशश्चैतेषु देवनिकायेषु देवा दशविधा भवन्ति । तद्यथा इन्द्राः सामानिकाः त्रायस्त्रिंशाः पारिषद्याः आत्मरक्षाः लोकपालाः अनीकानि अनीकाधिपतयः प्रकीर्णकाः आभियोग्याः किल्बिषिकाश्चेति ॥ तन्द्राः भवनवासिन्यन्तरज्योतिष्कविमानाधिपतयः॥ इन्द्रसमानाः सामानिकाः अमात्यपितृगुरूपाध्यायमहत्तरवत् केवलमिन्द्रत्वहीनाः । त्रायस्त्रिंशा मंत्रिपुरोहितस्थानीयाः। पारिषद्याः वयस्यस्थानीयाः । आत्मरक्षाः शिरोरक्षस्था
१-दिगम्बर सम्प्रदायमें सोलह स्वर्ग और उनके बारह इन्द्र माने हैं । इन इन्द्रोंकी अपेक्षासे ही कल्पोपनके बारह भेद माने हैं । यथा-सौधर्मादि चार स्वाँके चार इन्द्र, पाँचवें छठेका एक, सातवें आठवेंका एक, नौवें दशवेंका एक ग्यारहवें बारहवेंका एक, और तेरहवेंसे सोलहवें तकके चार इन्द्र हैं । इनके नाम राजवार्तिकमें देखना चाहिये । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें अच्युत पर्यन्त बारह स्वर्ग और उनके बारह ही इन्द्र माने हैं। किन्तु सिद्धसेन गणीने इन्द्रोंके दश भेद ही गिनाये हैं, जैसा कि अध्याय ४ सूत्र ६ की टीकासे मालूम होता है । २-इस कथनसे नव ग्रैवेयक और नव अनुदिश दोनोंका ही ग्रहण करना चाहिये । ३-विजय वैजयंत जयंत अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पाँच विमानोंको अनुत्तर कहते हैं । ४-अहमिन्द्रोऽस्मि नेन्द्रोऽन्यो मत्तोस्तीत्यात्तकत्थनाः । अहमिन्द्राख्यया ख्याति गतास्ते हि दिवौकसः ॥ श्रीजिनसेनाचार्य-महापुराण ५-"अधिवासवाची चायं कल्पशब्दः । अन्तेपरिगताः पर्यन्ताः। कल्पोपपन्नाः ( कल्पधूपन्नाः) पर्यन्ता येषां त इमे। कल्पाश्च द्वादश वक्ष्यमाणाः सौधर्मादयोऽच्युतपर्यवसानाः । तत्पर्यन्तमेतच्चतुष्टयं भवतीति ॥ ६-सूत्रमें केवल अनीक शब्द ही पड़ा है, न कि अनीकाधिपति। अतएव भाष्यकारने अनीक शब्दका ही अर्थ अनीकाधिपति है । ऐसा समझानेके लिये खुलासा किया है। अन्यथा दशकी संख्या विघटित हो जायगी।
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