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________________ १८८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ चतुर्थोऽध्यायः इन्द्रियोंके द्वारा नहीं दीखते । अतएव उनका मूलमें अस्तित्व भी है या नहीं ? अथवा यह कैसे मालम हो, कि वास्तवमें देवगतिका अस्तित्व है ? उत्तर-देवगतिके एक देशको देखकर शेष भेदोंके अस्तित्वको भी अनुमानसे जाना जा सकता है । चार निकायोंमेंसे ज्योतिष्कदेवोंका अस्तित्व प्रत्यक्ष है । इसी बातको दिखाने के लिये सूत्र कहते हैं:-- सूत्र-तृतीयः पीतलेश्यः ॥२॥ भाष्यम्-तेषां चतुर्णा देवनिकायानां तृतीयो देवनिकायः पीतलेश्य एव भवति । कश्चासौ ? ज्योतिष्क इति । अर्थ-ऊपर जो देवोंके चार निकाय बताये हैं, उनमेंसे तीसरे देवनिकायके पीतलेश्या ही होती है । उस देवनिकायका नाम है-ज्योतिष्क । अर्थात् चार देवनिकायोंमेंसे तीसरे देवनिकायका नाम ज्योतिष्क है, और वह नियमसे पीतलेश्यावाला ही होता है । चन्द्र सूर्य आदि विमान प्रत्यक्ष दीखते हैं। उनमें रहनेवाले देव ज्योतिष्कदेव कहे जाते हैं । जिस प्रकार मकानोंको देखकर उनमें रहनेवालोंका अस्तित्व अनुमानसे मालूम हो जाता है । उसी प्रकार उन देवोंका अस्तित्व भी समझ लेना चाहिये, और उन देवोंके सम्बन्धसे दूसरे देवोंका अस्तित्व भी जाना जा सकता है । जैसे कि सेना वन आदिके एकदेशको देखकर शेषका भी ज्ञान हो जाता है। ऊपर जो चार निकाय बताये हैं, उनके अन्तरभेदोंको बताने के लिये सत्र कहते हैं:सूत्र-दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥३॥ ___ भाष्यम्-ते च देवनिकाया यथासख्यमेवंविकल्पा भवन्ति। तद्यथा-दशविकल्पा भवनवासिनोऽसुरादयो वक्ष्यन्ते । अष्टविकल्पा व्यन्तराः किन्नरादयः । पञ्चविकल्पा ज्योतिष्काः सूर्यादयः। द्वादशविकल्पाः वैमानिका कल्पोपन्नपर्यन्ताः सौधर्मादिष्विति ॥ अर्थ-ऊपर जिन देवनिकायोंका उल्लेख किया गया है, उनके भेद क्रमसे इस प्रकार हैं:-भवनवासी, इनके असुरकुमार नागकुमार विद्यत्कुमार आदि दश भेद हैं, जिनका कि वर्णन आगे चलकर करेंगे । व्यन्तर, इनके किन्नर किंपुरुष महोरग आदि आठ भेद हैं। तीसरे ज्योतिष्क हैं, जिनके कि सूर्य चन्द्र आदि पाँच भेद हैं । वैमानिकदेवोंके बारह भेद हैं, परन्तु ये भेद सौधर्म आदि स्वर्गसे लेकर कल्पोपपन्न पर्यन्त हैं । आगे नहीं । व्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिकदेवोंके इन भेदोंका भी उल्लेख आगे किया जायगा। १-यहाँपर लेश्यासे द्रव्यलेश्या समझनी चाहिये, जो कि शरीरके वर्णरूप है। परन्तु यह कथन ठीक समझमें नहीं आता, क्योंकि देवोंके अस्तित्वको सिद्ध करनेके लिये यह सूत्र है। देव प्रत्यक्ष नहीं दीखते हैं, जो दीखते हैं, वे देवोंके विमान हैं, और उनके वर्णको लेझ्या कैसे कहा जा सकता है, फिर सभी विमान या देव पीतवर्णके ही नहीं हैं। यदि देवोंका शरीर वर्ण लिया जाय, तो शेष तीन निकायोंके समान ज्योतिष्क भी दीखते नहीं। २-सौधर्मादिष्वपीति च पाठान्तरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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