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________________ १८७ सूत्र १ ।] समाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । देव शब्द दिव् धातुसे बना है, जोकि क्रीड़ा विजिगीषा व्यवहार द्युति स्तुति मोद मद स्वप्न कान्ति और गति अर्थमें आती है । देवगति नामकर्मके उदयसे जो जीव देवपर्यायको धारण करता है, वह स्वभावसे ही क्रीड़ा करनेमें आसक्त रहा करता है । उसको भूख प्यासकी बाधा नहीं हुआ करती । उसका शरीर रस रक्तादिकसे रहित और दीप्तिशाली हुआ करता है । उनकी गति भी अति शीघ्र और चपल हुआ करती है । इत्यादि अर्थोके कारण ही उनको देवे कहते हैं। __ दूसरा प्रश्न उनके भेदोंके विषयमें है । सो उसका उत्तर चतुर्निकाय शब्दके द्वारा स्पष्ट ही है, कि देवोंके चार निकाय हैं । निकाय नाम संघ अथवा जाति या भेद का है । देवोंकी-भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी और वैमानिक ये चार जातियाँ हैं, अथवा उनके ये चार संघ या भेद हैं ! यद्वा निकाय शब्दका अर्थ निवासस्थान भी माना है । चारों प्रकारके देवोंके निवास और उत्पत्तिके स्थान भिन्न भिन्न हैं और वे चार हैं। भवनवासी रत्नप्रभा पृथिवीके ऊपर नीचेके एक एक हजार योजनके भागको छोड़कर शेष भागमें उत्पन्न होते हैं । ऊपर जो एक हजार योजनका भाग छोड़ा है, उसमेंसे ऊपर नीचे सौ सौ योजन छोडकर मध्यके आठ सौ योजनके भागमें व्यंतर उत्पन्न हुआ करते हैं। ज्योतिषी देव पृथिवीसे ऊपर सात सौ नब्भे योजन चलकर एकसौ दश योजन प्रमाण ऊँचे नभो भागमें जन्म ग्रहण किया करते हैं। वैमानिकदेव मेरुसे ऊपर ऋजुविमानसे लेकर सर्वार्थसिद्धिपर्यंतके विमानोंमें उत्पन्न हुआ करते हैं। इस प्रकार उत्पत्तिस्थानके भेदसे देवोंके चार भेद हैं। इनका गमनागमन जन्मस्थानके सिवाय अन्यस्थानोंमें भी हुआ करता है। यहाँपर इतनाही देवोंका स्वरूप और भेदकथन सामान्यसे समझना चाहिये । क्योंकि इसका विशेष वर्णन आगे चलकर करेंगे । यहाँपर इतना और विशेष समझना कि यह ऊर्ध्वलोकका प्रकरण है, अतएव उसके अनुसार देवशब्दसे भावदेव ही यहाँपर विवक्षित हैं। प्रश्न-देवोंका स्वरूप और उनके चार निकाय आपने बताये; परन्तु देव प्रत्यक्ष १-" दीव्वंति जदो णिचं गुणेहिं अहिं दिव्वभावेहिं । भासंतदिव्वकाया तम्हा ते वण्णिया देवा ॥१५॥ (गोम्मटसार जीवकाण्ड ) इसके सिवाय देखो भगवतीसूत्र ५८४-" के महालए णं भंते ! लोए पन्नत्ते ?" इत्यादि । और विमानमहत्व प्रज्ञापनाम “के महालया णं भंते ! विमाणा पण्णता?'' इत्यादि । २-वैमानिकदेवोंका जन्म अपने अपने स्वर्गमें ही होता है, परन्तु उनकी नियोगिनी देवियोंका जन्म पहले दूसरे स्वर्गमें ही होता है । ऊपरके स्वामें जन्म ग्रहण करनेवाले अथवा रहनेवाले देव वहाँसे आकर उन अपनी अपनी नियोगिनी देवियोंको अपने अपने स्थानपर ले जाते हैं। ३--इसी अध्यायमें। ४--भगवतीसूत्रमें (श. १२ उ. ९ सूत्र ४६१) पाँच प्रकारके देव बताये हैं ।-भव्य द्रव्यदेव नरदेव धर्मदेव देवाधिदेव और भावदेव । यथा-" कतिविधा ण भते! देवा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविधा देवा पण्णत्ता तं जहा-भवियदब्बदेवा नरदेवा धम्मदेवा देवाहिदेवा भावदेवाय ।" जो मनुष्य या तिर्येच मरकर देव होनेवाला है, उसको भव्य द्रव्यदेव कहते हैं । चौदह रत्नोंके अधिपति चक्रवर्तियोंको नरदेव कहते हैं । निर्ग्रन्थ साधुओंको धर्मदेव और तीर्थंकर भगवान्को देवाधिदेव कहते हैं। जो देवगति नामकर्मके उदयसे देवपर्यायको धारणकर देवायुको भोगनेवाले हैं, उनको भावदेव कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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