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________________ चतुर्थोऽध्यायः। अधोलोक और मध्यलोकका वर्णन ऊपर तीसरे अध्यायमें कर चुके हैं, किन्तु ऊर्ध्वलोकका वर्णन अभीतक नहीं किया गया । अतएव उसका वर्णन करनेकी आवश्यकता है। इसके सिवाय भाष्यम्-अत्राह उक्तं भवता "भवप्रत्ययोऽवधि रकदेवानामिति" । तथौदयिकेषु भावेषु देवगतिरिति । केवलिश्रुतसकधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य । सरागसंयमादयो दैवस्य । नारकसम्मूच्छिनोनपुंसकानि न देवाः। तत्र के देवाः ? कतिविधा वेति ? अत्रोच्यतेः अर्थ—यह प्रश्न भी उपस्थित होता है, कि आपने अनेक स्थलोंपर देव शब्दका प्रयोग किया है-जैसे कि " भवप्रत्ययोऽवधि रकदेवानाम् ( अ० १ सूत्र २२ ) । तथा औदयिकभावोंका वर्णन करते हुए भी देवगतिका उल्लेख किया है ( अ० २ सत्र ६ ) और “ केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ।" (अ० ६ सूत्र १४४ ) इसी प्रकार “ सराग संयमादयो देवस्य" एवं “ नारक सम्मछिनो नपुंसकानि-न देवाः।" इन सूत्रोंमें भी देव शब्दका पाठ किया है । इस प्रकार देव शब्दका पाठ तो अनेक बार किया है, परन्तु अभी तक यह नहीं बताया, कि देव कहते किसको हैं ? दूसरा प्रश्न यह भी है, कि उन देवोंके कुछ भेद भी हैं या नहीं ? भावार्थ-जीव तत्त्वके आधारभूत तीन लोकों से ऊर्ध्वलोकका वर्णन बाकी है, उसका करना आवश्यक है, इसलिये और अनेक सूत्रोंमें जो देव शब्दका प्रयोग किया है, उसपरसे उक्त दो प्रश्न जो उपस्थित होते हैं, उनका उत्तर देनेके लिये आचार्य सूत्र कहते हैं सूत्र--देवाश्चतुर्निकायाः॥१॥ भाष्यम्-देवाश्चतुर्निकाया भवन्ति । तान्पुरस्ताद्वक्ष्यामः॥ अर्थ-देव चार निकायवाले हैं। चारों निकायोंका वर्णन आगे चलकर किया जायगा । भावार्थ-सबसे पहला प्रश्न तो यही उपस्थित होता है, कि जब देव अधोलोक और मध्यलोकमें भी रहते हैं, तो ऊर्ध्वलोकको ही देवोंका आवास क्यों कहा जाता है ? उत्तरदेवोंके चार निकाय हैं-भवनवासी व्यंतर ज्योतिषी और वैमानिक । भवनवासी अधोलोकमें और व्यंतर तथा ज्योतिषी तिर्यग्लोकमें रहते हैं, यह ठीक है, परन्तु देवोंमें वैमानिकदेव प्रधान हैं, और उनका निवास ऊर्ध्वलोकमें ही है । अतएव ऊर्ध्वलोकको जिसका कि इस चतुर्थ अध्यायमें वर्णन किया जायगा, देवोंका आवासस्थान कहते हैं। देव किसको कहते हैं ? इसका उत्तर देवशब्दकी निरुक्तिसे ही लब्ध हो जाता है । १-दीव्यन्तीति देवाः । - - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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