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________________ सूत्र ४-५-६ ।] समाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ऊपरके कथनसे देवोंके चारों ही निकायोंमें यह दशविध कल्पना है-सभी निकायोंमें ये दश प्रकारके देव रहते हैं, ऐसा समझमें आता है। क्योंकि ऊपर जो कथन किया है, वह सामान्य है, उसमें अभीतक कोई विशेष उल्लेख नहीं किया है । अतएव उसमें जो विशेषता है, उसको बताते हैं मूत्र--त्रायस्त्रिंशलोकपालवा व्यन्तरज्योतिष्काः॥५॥ भाष्यम्-व्यन्तरा ज्योतिष्काश्चाष्टविधा भवन्ति त्रायस्त्रिंशलोकपालवा इति ॥ अर्थ-चार निकायोंमेंसे व्यन्तर तथा ज्योतिष्क निकायमें आठ प्रकारके ही देव रहा करते हैं । उनमें त्रायस्त्रिंश और लोकपाल नहीं हुआ करते । भावार्थ-इन्द्र सामानिक आदिके भेदसे देवोंके जो दश प्रकार बताये हैं, वे दशों प्रकार भवनवासी और वैमानिक देवोंमें ही पाये जाते हैं। व्यन्तर और ज्योतिष्कोंमें नहीं । अतएव उनमें देवोंके आठ ही भेद हुआ करते हैं। इन्द्र आदि दश भेद जो बताये हैं, उनमें और कोई विशेषता नहीं बताई है, अतएव कोई समझ सकता है, कि चार निकायोंके चार ही इन्द्र हैं, इसी प्रकार और भी अनिष्ट अर्थका प्रसङ्ग आ सकता है । अतएव उक्त निकायोंमें इन्द्रोंकी कल्पना किस प्रकारसे है, इस बातको बतानेके लिये सूत्र करते हैं सूत्र--पूर्वयोर्दीन्द्राः ॥६॥ भाष्यम्-पूर्वयोर्देवनिकाययोर्भवनवासिव्यन्तरयोर्देवविकल्पानां द्वौ द्वाविन्द्रौ भवतः। तद्यथा-भवनवासिषु तावद्वौ असुरकुमाराणामिन्द्रौ भवतश्चमरो बलिश्च । नागकुमाराणां धरणो भूतानन्दश्च । विद्युत्कुमाराणां हरिहरिहसश्च । सुपर्णकुमाराणां वेणुदेवो वेणुवारी च। अग्निकुमाराणामग्निशिखोऽग्निमाणवश्च । वातकुमाराणां वेलम्बः प्रभञ्जनश्च । स्तनितकुमाराणां सुघोषो महाघोषश्य । उदधिकुमाराणां जलकान्तो जलप्रभश्च । द्वीपकुमाराणां पूर्णोऽवशिष्टश्च । दिक्कुमाराणाममितोऽमितवाहनश्चेति ॥ व्यन्तरेष्वपि द्वौ किन्नराणामिन्द्री किन्नरः किम्पुरुषश्च । किम्पुरुषाणां सत्पुरुषो महापुरुषश्च । महोरगाणामतिकायो महाकायश्च । गन्धर्वाणां गीतरतिस्तयशाश्च । यक्षाणा पूर्णभद्रो मणिभद्रश्च । राक्षसानां भीमो महाभीमश्च । भूतानां प्रतिरूपोऽतिरूपश्च । पिशाचानां कालो महाकालश्चेति ॥ ज्योतिष्काणां तु बहवः सूर्याश्चन्द्रमसश्च । वैमानिकानामेकैक एव । तद्यथा-सौधर्मे शकः ऐशाने ईशानः, सनत्कुमारे सनत्कुमारः इति। एवं सर्वकल्पेषु स्वकल्पाव्हाः परतस्त्विन्द्रादयो दश विशेषा न सन्ति, सर्व एव स्वतन्त्रा इति । ___ अर्थ-उपर्युक्त चार निकायोंमेंसे पहले दो देवनिकायोंमें अर्थात् भवनवासी और व्यन्तरोंमें जितने देवोंके विकल्प हैं, उन सभीमें दो दो इन्द्र हुआ करते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-भवनवासियोंके असुरकुमार आदि दशभेद हैं, जिनमेंसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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