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सूत्र १७ - १८ । ]
सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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संसारी प्राणी चार भागोंमें विभक्त हैं- नारक तिर्यञ्च मनुष्य और देव । इनमें से नारकियोंकी उत्कृष्ट जघन्य आयुका प्रमाण बता चुके हैं, देवोंकी आयुका प्रमाण आगे के अध्यायमें बतावेंगे, मनुष्योंकी आयुका प्रमाण इस सूत्र में बता दिया । अतएव तिर्यञ्चकी आयुका प्रमाण बताना बाकी है, उसीको बतानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
सूत्र - तिर्यग्योनीनां चे ॥ १८ ॥
भाष्यम् - तिर्यग्योनिजानां चं परापरे स्थिती त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते भवतो यथासंख्यमेव । पृथक्करणं यथासंख्यदोषनिवृत्त्यर्थम् । इतरथा इदमेकमेव सूत्रमभविष्यदुभयत्र चोभे यथासंख्यं स्यातामिति ।
अर्थ — तिर्यग्योनिले उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी भी उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति क्रमानुप्तार तीन पल्य और अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही समझनी चाहिये । दो सूत्र पृथक् पृथक् करने का प्रयोजन यथासंख्य दोषकी निवृत्ति करता है । क्योंकि यदि ऐसा न किया होता, और दोनों सूत्रोंकी जगह एक ही सूत्र रहता, तो यथासंख्यके नियमानुसार दोनों स्थितियोंका दो जगह बोध हो जाता ।
भावार्थ — यथासंख्य प्रकृतमें दो प्रकारका हो सकता है - एक तो उत्कृष्ट और जबन्यका तीनपल्य और अन्तर्मुहूर्त के साथ । दूसरा मनुष्य और तिर्यञ्चों का उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिके साथ । इनमेंसे पहला यथासंख्य इष्ट है, और दूसरा अनिष्ट । पहला यथासंख्य 'पृथक् पृथक् दो सूत्र होनेपर ही वन सकता है । यदि दोनोंकी जगह एक सूत्र कर दिया जाय, तो अनिष्ट यथासंख्यका प्रसङ्ग प्राप्त होगा । जिससे ऐसे अर्थका बोध हो सकता है, कि मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्यकी होती है, और तिर्यञ्चोंकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तकी होती है।
भाष्यम् - द्विविधा चैषां मनुष्यतिर्यग्योनिजानां स्थितिः । भवस्थितिः कार्यस्थितिश्च । मनुष्याणां यथोक्ते त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते परापरे भवस्थिती । काय स्थितिस्तु परा सप्ताष्टौ वा भवग्रहणानि ॥ तिर्यग्योनिजानां च यथोक्ते समासतः परापरे भवस्थिती ।
अर्थ - मनुष्यों की तथा तिर्यञ्चों की स्थिति दो प्रकारकी है, एक भवस्थिति दूसरी कायस्थिति । ऊपर तीन पल्य तथा अन्तर्मुहूर्त की क्रमसे उत्कृष्ट तथा जघन्य जो स्थिति बताई • है, वह मनुष्यों की भवस्थिति है । अर्थात् मनुष्यभवको धारण करनेवाले जीवकी एक भवमें स्थिति अन्तर्मुहूर्तसे कम नहीं हो सकती और तीन पल्यसे अधिक नहीं हो सकती । एक
१ - तिर्यग्योनिजानां चेत्यपि पाठः । २- तिर्यग्योनीनां चेत्यपि पाठः । ३ - यद्येकमेव इति वा पाठः । ४ - टीकाकारने लिखा है, कि एक सूत्र कर देनेसे भी कोई क्षति नहीं है । समस्त पदोंका सम्बन्ध हो जानेसे भी इष्ट अर्थका बोध हो सकता है । अथवा व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः इस नियम के अनुसार इष्ट अर्थ किया जा सकता है । अथवा इस सूत्र की रचना आर्ष ही समझनी चाहिये ।
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