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________________ सूत्र १५-१६ । ] सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १८१ इन अन्तरद्वीपोंका और इनमें रहनेवाले मनुष्यों का नाम समान है । जैसे कि एकोरुक । अर्थात् एकोरुक मनुष्योंका एकोरुक द्वीप है, अथवा यह भी कहा जा सकता है, कि एकोरुक द्वीपमें रहने के कारण ही उन मनुष्योंका नाम एकोरुक है । इसी प्रकार आभासिक आदि शेष द्वीपों और उनमें रहनेवाले मनुष्योंके नाममें तुल्यता समझनी चाहिये । 1 लवणसमुद्र के भीतर तीन सौ योजन से लेकर नौ सौ योजन भीतर तक चलकर ये सात अन्तरद्वीप हैं, जो कि हिमवान् पर्वतके पूर्व और पश्चिमकी चारों विदिशाओं के मिलाकर अट्ठाईस होते हैं । जिस प्रकार हिमवान् पर्वत सम्बन्धी अट्ठाईस अन्तरद्वीप हैं, उसी प्रकार शिखरीपर्वत सम्बन्धी भी अट्ठाईस हैं । कुल मिलाकर ५६ अन्तरद्वीप होते हैं । इन सभी द्वीपों में रहनेवाले मनुष्य अन्तद्वीप म्लेच्छ कहे जाते हैं । इस प्रकार मनुष्यों के आर्य और म्लेच्छ भेदों को बताकर मनुष्यक्षेत्र में कर्मभूमि और अकर्मभूमि नामके जो भेद हैं, वे कौन से हैं, इस बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं— सूत्र - भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ।। १६ ।। भाष्यम् – मनुष्यक्षेत्रे भरतैरावतविदेहाः पञ्चदश कर्मभूमयो भवन्ति । अन्यत्र देवकुरूउत्तरकुरुभ्यः । संसारदुर्गान्तगमकस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकस्य मोक्षमार्गस्य ज्ञातारः कर्त्तारः उपदेष्टारश्च भगवन्तः परमर्षयस्तीर्थकरा अत्रोत्पद्यन्ते । अत्रैव जाताः सिद्धयन्ति नान्यत्र । अतो निर्वाणाय कर्मणः सिद्धिभूमयः कर्मभूमय इति । शेषासु विंशतिर्वंशाः सान्तरद्वीपा कर्मभूयो भवन्ति । देवकुरूत्तरकुरवस्तु कर्मभूम्यभ्यन्तरा अध्यकर्मभूमय इति ॥ अर्थ — उपर्युक्त मनुष्यक्षेत्रमें भरत ऐरावत और देवकुरु तथा उत्तरकुरुको छोड़कर बाकी के विदेहक्षेत्र सम्धी पन्द्रह कर्मभूमियाँ हैं । भावार्थ- पाँच मेरुओं से अधिष्ठित पैंतालीस लाख योजन लम्बे चौड़े मनुष्यक्षेत्र में पाँच भरत ँ, ऐरावत और पाँच ही विदेहक्षेत्र हैं । ये ही मिलकर पन्द्रह कर्मभूमियाँ कहाती I हैं । इनके सिवाय जो क्षेत्र हैं, वे अकर्मभूमि हैं । विदेहमें देवकुरु और उत्तरकुरुका भाग भी १–दिगम्बर सम्प्रदायमें लवणसमुद्र और कालोदसमुद्रके मिलाकर ९६ अन्तरद्वीप माने हैं, और इनके विस्तार आदि में भी बहुत विशेषता है, जिसका खुलासा, • राजवार्त्तिक और त्रिलोकसार आदिमें देखना चाहिये । यथा“ तथा तद्वीपजा म्लेच्छाः परे स्युः कर्मभूमिजाः । आद्याः पण्णवतिः ख्याता वार्धिद्वयतटद्वयोः ॥ ” ( तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक) इनमेंसे जो विजयार्ध के अन्तमें रहनेवाले हैं, वे केवल मिट्टी आदि खाकर रहते हैं, और शेष के हिमवान् आदिके अंतमें रहनेवाले फल फूलों का आहार करनेवाले तथा पत्यप्रमाण आयुके भोक्ता हुआ करते हैं । ये अन्तरद्वीप कहाँ कहाँ हैं, कितने कितने बड़े हैं, और पृथ्वीतलसे कितनी ऊँचाईपर हैं, आदि बातें ग्रन्थान्तरोंसे जाननी चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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