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________________ १८० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [ तृतीयोऽध्यायः और तीन सौ ही योजन चौड़ा आमासिक नामका द्वीप है, उसमें आभासिक नामके मनुष्य निवास करते हैं । दक्षिण पश्चिम दिशामें तीन सौ योजन समुद्रके भीतर चलकर तीन सौ योजन लम्बा और तीन सौ योजन चौड़ा लाङ्गलिक नामका द्वीप है, जिसमें कि लाङ्गलिक नामके मनुष्य निवास करते हैं। उत्तर पश्चिम दिशामें तीन सौ योजन वणसमुद्रके भीतर चलकर तीन सौ योजन लम्बा और तीन सौ योजन चौड़ा वैषाणिक नाका द्वीप है, जिसमें कि वैषाणिक नामके मनुष्य निवास करते हैं। ये पहले अन्तरद्वीप सम्बन्धी चार द्वीप हैं, इसी प्रकार सातवें अन्तरद्वीप तकके चार चार भेदोंको समझ लेना चाहिये । अर्थात् पूर्वोत्तर दिशामें चार सौ योजन लवणसमुदके भीतर चलकर चार सौ योजन लम्बा और चार सौ ही योजन चौड़ा हयकर्ण नामका द्वीप है, जिसमें कि हयकर्ण नामके मनुष्य रहते हैं । दक्षिण पूर्व दिशामें चार सौ योजन लवणसमुद्रके भीतर चलकर चार सौ योजन लम्बा और चार सौ ही योजन चौड़ा गजकर्ण नामका द्वीप है, जिससे कि गजकर्ण नामके मनुष्य रहते हैं। दक्षिण पश्चिम दिशामें चार सौ योजन लवणसमुद्र के भीतर चलकर चार सौ योजन लम्बा और चार सौ ही योजन चौड़ा गोकर्णनामका द्वीप है, जिममें कि गोकर्ण नामके मनुष्य रहते हैं। उत्तर पश्चिम दिशामें चार सौ योजन लवणसमुद्रके भीतर चलकर चार सौ योजन लम्बा और उतना ही चौड़ा शकुलिकर्ग नामका अन्तरद्वीप है, जिसमें कि शष्कुलिकर्ण नामके मनुष्य रहते हैं। लवणसमुद्रके भीतर पाँच सौ योजन चलकर पाँच पाँच सौ योजनका जिनका आयामविस्तार और विष्कम्भ है, ऐसे चार अन्तरद्वीप हैं, जोकि उपर्युक्त चार विदिशाओंमें सन्निविष्ट हैं, और जिनके कि क्रमसे गजमुख व्याघ्रमुख आदर्शमुख और गोमुख ये नाम हैं । तथा इनमें क्रमसे इन्हीं नामवाले मनुष्य निवास करते हैं । छह सौ योजन भीतर चलकर उतने ही विस्तार और विष्कम्भवाले क्रमसे पूर्वोत्तर आदि विदिशाओंमें अश्वमुख हस्तिमुख सिंहमुख और व्याघ्रमुख नामके चार द्वीप हैं, जिनमें कि क्रमसे इन्हीं नामवाले मनुष्य निवास करते हैं। इसी प्रकार सात सौ योजन लवणसमुद्रके भीतर चलकर क्रमसे पूर्वोत्तरादि विदिशाओंमें सात सात सौ योजन लम्बे चौड़े अश्वकर्ण सिंहकर्ण हस्तिकर्ण कर्णप्रावरण नामके चार अन्तरद्वीप हैं, जिनमें कि क्रमसे इसी तरहके नामवाले मनुष्योंका निवास है । आठ सौ योजन भीतर चलकर उतने ही विस्तार और विष्कम्भवाले उपर्युक्त चार विदिशाओंमें क्रमसे उल्कामुख विद्युजिह्व मेषमुख और विद्युद्दन्त नामके अन्तरद्वीप हैं, जिनमें कि वैसे ही नामवाले मनुष्य निवास करते हैं। नौसौ योजन भीतर चलकर उतने ही विस्तार और विष्कम्भवाले चारों विदिशाओंमें क्रमसे घनदन्त गूढदन्त विशिष्टदन्त और शुद्धदन्त नामके चार अन्तरद्वीप हैं, जिनमें कि क्रमसे इसी नामवाले मनुष्य निवास करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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