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________________ सूत्र १५।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १७७ है बाहर नहीं । इस कथनसे मनुष्योंका स्वरूप और अधिकरण क्या है, सो मालूम होता है । परन्तु मनुष्योंके भेद कितने हैं, सो नहीं मालूम होते । इसके लिये कहते हैं, कि उनके भेद अनेक प्रकारसे किये जा सकते हैं, क्षेत्र-विभागकी अपेक्षासे तथा द्वीपसमुद्र विभागकी अपेक्षासे । इत्यादि । परन्तु जिनमें सभी भेदोंका अन्तर्भाव हो जाय, ऐसे मूलभेद कौनसे हैं, इस बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं सूत्र-आर्या म्लेच्छाश्च ॥ १५ ॥ भाष्यम्-द्विविधा मनुष्या भवन्ति, आर्या, म्लिशश्च । तत्रार्याः षड्रविधाः क्षेत्राः जात्यार्याः कुलार्याः कार्याः शिल्पार्याः भाषार्याः इति । तत्र क्षेत्रार्याः पञ्चदशसु कर्मभूमिषु जाताः । तथा भरतेष्वर्धषविंशतिषु जनपदेषु जाताः शेषेषु च चक्रवर्तिविजयेषु । जात्यार्या इक्ष्वाकवो विदेहा हरयोऽम्बष्ठाः ज्ञाताः कुरवो वुवुनाला उग्रा भोगा राजन्या इत्येवमादयः। कुलार्याःकुलकराश्चक्रवर्तिनो बलदेवा वासुदेवा ये चान्ये आतृतीयादा पञ्चमादा सप्तमाद्वा कुलकरेभ्यो वा विशुद्धान्वयप्रकृतयः। कर्मार्या यजनयाजनाध्ययनाध्यापनप्रयोगकृषिलिपिवाणिज्ययोनिपोषणवृत्तयः । शिल्पार्यास्तन्तुवायकुलालनापिततुन्नवायदेवटादयोऽल्पसावद्या अगर्हिताजीवाः । भाषार्या नाम ये शिष्टभाषानियतवर्ण लोकरूढस्पष्टशब्दं पञ्चविधानामप्यार्याणां संव्यवहारं भाषन्ते ॥ अर्थ---मूलमें मनुष्य दो प्रकारके होते हैं- एक आर्य दुसरे म्लच्छ । आर्य मनुष्योंके छह भेद हैं-क्षेत्रार्य जात्यार्य कुलार्य कार्य शिल्पार्य और भाषार्य । जो पन्द्रह कर्मभूमियोंमें उत्पन्न होनेवाले हैं, तथा भरतक्षेत्रके साढ़े पच्चीस जनपदोंमें अथवा शेष चक्रवर्तीके विजय स्थानोंमें जो जन्म धारण करनेवाले हैं, उनको क्षेत्रार्य कहते हैं । इक्ष्वाकु विदेह हरि अम्बष्ठ ज्ञात कुरु बुबुनाले उग्र भोग और राजन्य प्रभृति जातिकी अपेक्षासे जो आर्य हैं, उनको जात्यार्य कहते हैं। कुलकी अपेक्षासे जो आर्य हैं, उनको कुलार्य कहते हैं, जैसे कि कुलकर चक्रवर्ती बलदेव वासुदेव प्रभृति तथा और भी तीसरेसे पाँचवेंसे या सातवेसे लेकर कुलकरोंके वंशमें जो उत्पन्न हुए हैं, या जो विशुद्ध वंश और प्रकृतिको धारण करनेवाले हैं, उनको कुलार्य कहते हैं। जो अनाचार्यक कर्मकी अपेक्षासे आर्य हैं, उनको कर्मार्य कहते हैं, जैसे कि यजन याजन अध्ययन अध्यापनका प्रयोग-कर्म करनेवाले तथा कृषि ( खेती ) लिपि ( लेखन ) वाणिज्य ( व्यापार ) की योनिभत-मलरूप पोषणवृत्ति-जिससे कि प्रजाका पोषण होता है, करनेवाले हैं, उनको कार्य कहते हैं । शिल्प-कारीगरीके कर्म करनेकी अपेक्षासे जो आर्य हैं, उनको शिल्पार्य कहते हैं। जैसे कि तन्तुवाय (कपड़े बुननेवाले) कुलाल (कुम्भार) नापित ( नाई ) तुन्नवाय ( सूत कातनेवाले ) और देवट प्रभृति । शिल्पार्योंसे इनका कर्म १-आर्या म्लिशश्चेत्यपि क्वचित्पठन्ति ॥ २-तद्यथा इति क्वचित्पठन्ति । ३-कहीं बुंवनाल और कहीं बुचनाल भी पाठ है । ४-कहीं भोज शब्द है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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