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________________ १७६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीयोऽध्यायः मरण हो सकता है, और उपपातकी अपेक्षा जन्म भी पाया जा सकता है, शेष अवस्थाओंमें नहीं । अतएव इस पर्वतको मानुषोत्तर कहते हैं। ___इस प्रकार मानुषोत्तरपर्वतके पहले ढाई द्वीप, दो समुद्र, पाँच मेरु, पैंतीस क्षेत्रं, तीस वर्षधरै पर्वत, पाँच देवकुरु, पाँच उत्तरकरु, एक सौ साठ चक्रवर्तियोंके विजयक्षेत्र, दो सौ पचपन जनपदै, और छप्पन अन्तर द्वीप हैं। भाष्यम्-अत्राह-उक्तं भवता मानुषस्य स्वभावमार्दवार्जवत्वं चेति । तत्र के मनुष्याः क चेति अत्रोच्यतेः अर्थ-इसी ग्रंथमें आगे चलकर आपने कर्मोंके आस्रवके प्रकरणमें कहा है, कि " स्वभावमार्दवा वावं च ।” अर्थात् स्वभावकी मृदुता और ऋजुता मनुष्यायुके आस्रवका कारण है, और भी मनुष्य शब्दका उल्लेख कई जगहपर किया है। किन्तु यह नहीं बताया कि वे मनुष्य कौन हैं ? और कहाँ रहते हैं ? अतएव इसी बातको दिखानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं सूत्र-प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः ॥ १४ ॥ भाष्यम्-प्राय मानुषोत्तरात्पर्वतात्पञ्चत्रिंशत्सु क्षेत्रेषु सान्तरद्वीपेषु जन्मतो मनुष्या भवन्ति । संहरणविद्यर्द्धियोगात्तु सर्वेष्वर्धतृतीयेषु द्वीपेषु समुद्रद्वये च समन्दरशिरवरे विति। भारतका हैमवतका इत्येवमादयः क्षेत्रविभागेन। जम्बूद्वीपका लवणका इत्येवमादयो द्वीपसमुद्रविभागेनेति ॥ अर्थ-उपर्युक्त मानुषोत्तरपर्वतके पूर्वमें-मानुषोत्तरपर्वतकी मर्यादासे घिरे हुए पैंतालीस लाख योजन प्रमाण विष्कम्भवाले मनुष्यक्षेत्रमें-पैतीस क्षेत्रोंमें तथा छप्पन अन्तरद्वीपोंमें मनुष्य जन्म धारण किया करते हैं। संहरण विद्या और ऋद्धिकी अपेक्षासे तो मनुष्योंका सन्निधान सर्वत्र--ढाई द्वीपोंमें दो समुद्रोंमें तथा मेरुशिखरोंपर पाया जाता है । भारतक-भरत क्षेत्रमें उत्पन्न होनेवाले और हैमवतक-हैमवतक्षेत्रमें उत्पन्न होनेवाले इत्यादि क्षेत्र विभागकी अपेक्षासे मनुष्योंके भेद हैं । तथा जम्बूद्वीपक-जम्बूद्वीपमें उत्पन्न होनेवाले, लवणक-लवणसमुद्रमें उत्पन्न होनेवाले इत्यादि द्वीपसमुद्रके विभागकी अपेक्षासे मनुष्योंके भेद हैं। भावार्थ:-मनुष्य आयु और मनुष्यगति नामकर्मके उदयसे जो जन्म धारण करते है, उन जीवोंको मनुष्य कहते हैं। अतएव मनुष्य पर्याय जन्मकी अपेक्षासे ही समझनी चाहिये, न कि किसी अन्य कारणसे । मनुष्यजन्म मानुषोत्तरपर्वतके भीतरके क्षेत्रमें ही होता १-जम्बूद्वीपके ७ धातकीखंडके १४ पुष्करार्धके १४। २-जम्बूद्वीपके ६, घातकीखण्डके १२, पुष्करार्धके १२ । ३-पाँच मेरुओंके आजू बाजूके विदेहक्षेत्रसम्बन्धी लिये हैं । पाँच भरत और पाँच ऐरावतोंके जोड़नेसे १७० होते हैं। ४-जनपदसे मतलब आर्यजनपदोंका है । ५-हिमवान् और शिखरीके पूर्व तथा पश्चिमकी तरफ विदिशाओंमें सात सात अन्तरद्वीप हैं, जो मिलकर ५६ होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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