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________________ सूत्र १३ ।। सभाष्यतत्त्वार्थाधिंगमसूत्रम् । १७५ ___इस पर्वतका नाम मानुषोत्तर क्यों है ? तो इसका कारण यह है, कि इससे आगे कोई भी मनुष्य गमन नहीं कर सकता । इस पर्वतसे परे आजतक कोई भी मनुष्य न तो उत्पन्न हुआ न होता है और न होगा । संहरणकी अपेक्षा भी मानुषोत्तरके परे कोई मनुष्य नहीं पाया जाता । चारण विद्याधर और ऋद्धि प्राप्त भी मनुष्योंका संहरण नहीं पाया जाता, और न हुआ न होगा। अर्थात् समुद्घात और उपपातकके सिवाय मानुषोत्तरके आगे मनुष्योंका जन्म तथा संहरण नहीं पाया जाता, इसीलिये इसको मानुषोत्तर ऐसा कहते हैं। भावार्थ-हर कर लेजानेको संहरण कहते हैं। कोई भी देव या विद्याधर आदिक वैरानुबन्धसे बदला आदि लेनेके लिये यहाँके मनुष्यको उठाकर इसलिये लेनाते हैं, कि वह विना प्रतीकारके ही मर जाय । किन्तु इस तरहका संहरण श्रमणी, वेदरहित, परिहारविशुद्धि संयमके धारण करनेवाले, पुलाक, अप्रमत्त, चतुर्दशपूर्वके धारक, और आहारक ऋद्धिके धारण करनेवाले मुनियोंका नहीं हुआ करता । ऐसा आगमका उल्लेख है। अतएव मानुषोत्तरके आगे चारण आदिका गमन निषिद्ध नहीं है, किन्तु उनका संहरण और वहाँपर मरण निषिद्ध है । विशिष्ट तपोबलके माहात्म्यसे जङ्घाचारण या विद्याचारण शक्तिको प्राप्त हुए मुनि चैत्यवन्दनाके लिये नन्दीश्वर आदि द्वीपोंको भी जाया करते हैं, ऐसा आवश्यकसूत्रोंमें विधान पाया जाता है। इसी प्रकार महाविद्याओंको धारण करनेवाले विद्याधर और वैक्रियिक आदि ऋद्धिके धारक भी मनुष्य वहाँ जाया करते हैं, ऐसा उल्लेख हैं। अतएव नियम ऐसा ही करना चाहिये, कि चारण आदिक वहाँ जाकर वहींपर प्राणोंका परित्याग नहीं करते । साधारण मनुष्य जिनका कि संहरण होता है, मानुषोत्तर तक पहुँचनेके पहले ही मरणको प्राप्त हो जाते हैं। सारांश यही है, कि इसके आगे मनष्योंका जन्म आर संहरण नहीं पाया जाता, सिवाय समुद्घात और उपपातके । समुद्घातकी अपेक्षा मनुष्यक्षेत्रके बाहर भी मनुष्योंका १- समणी अवगत वेदं परिहारपुलागमप्पमत्तं च । चोइसपुचि आहारथं च णवि कोइ संहरइ ॥ श्रमणीमपगतवेदं परिहारं पुलाकमप्रमत्तं च । चतुर्दशपूर्विणामाहारकं च नैव कोपि संहरति ॥ (भग० श०२५उ०६वृत्तो) २-यह बात दिगम्बर-सम्प्रदायमें नहीं मानी है। दिगम्बर-सिद्धान्तके अनुसार मानुषोत्तरसे आगे समुद्धात और उपपातके सिवाय कभी कोई कैसा भी मनुष्य चारण विधाधर आदि भी गमन नहीं कर सकता। ३-समुद्घातका लक्षण पहले बता चुके हैं, कि आत्मप्रदेशोंका शरीरसे सम्बन्ध न छोड़कर बाहर निकलना, इसको समुद्घात कहते हैं । इसके सात भेद हैं । प्रकृतमें टीकाकारने समुद्घात शब्दसे मारणान्तिक समुद्घातका उल्लेख किया है, परन्तु केवल समुद्घातमें भी मनुष्यक्षेत्रके बाहर आत्मप्रदेश पाये जाते हैं। किंतु केवल समुद्घातमें मरण नहीं होता, और टीकाकारका अभिप्राय मरणको दिखानेका है । क्योंकि कोई ढाई द्वीपके बाहर जन्म धारण करनेके लिये मारणान्तिक समुद्घातके द्वारा पहुँचकर पीछे वहीं मर जाता है, ऐसा माना है। इस अपेक्षासे मनुष्यक्षेत्र के बाहर भी मनुष्यका मरण संभव है। किन्तु दिगम्बर-सम्प्रदायक अनुसार मारणान्तिक समदा वाला उत्पन्न होने के प्रदेशोंका स्पर्श करके वापिस आ जाता है. फिर मरण करता है. अतएव वहाँ मरण संभव नहीं किन्तु मनुष्य-पर्यायका संभव है । ४-ढाई द्वीपके बाहरका जीव मरण करके मनुष्यक्षेत्रमें आता है, तब विग्रहगतिमें मनुष्य आयुका उदय रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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