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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ तृतीयोऽध्यायः
अल्पसावध है, और इसी लिये इनका आजीवन अगर्हित माना गया है। भाषा-शब्द व्यवहारकी अपेक्षासे जो आर्य हैं, उनको भाषार्य कहते हैं । गणधरादिक शिष्ट-विशिष्ट-सर्वातिशय सम्पन्न व्यक्तियोंके बोलनेकी जो संस्कृत अथवा अर्धमागधी आदि भाषाएं हैं, उनमें अकारादि वर्गों के पूर्वापरीभावसे सन्निवेश करनेके जो विशिष्ट नियम हैं, उनकी जिसमें प्रधानता पाई जाती है, तथा जो लोकमें रूढ-अत्यन्त प्रसिद्ध हैं, और स्फुट-बाल-भाषाके समान व्यवहारमें अव्यक्त नहीं हैं, ऐसे शब्दोंका जिसमें व्यवहार पाया जाता है, ऐमी उपर्युक्त पाँच प्रकारके आर्य पुरुषोंके बोलनेकी भाषाका जो व्यवहार करते हैं, उनको भाषार्य समझना चाहिये ।
भावार्थ-सामान्यतया मनुष्योंके दो भेद हैं ।-एक आर्य दूसरे म्लेच्छ । जो गुणोंको धारण करनेवाले हैं, अथवा जो गुणवानोंके आश्रय हैं, उनको आर्य कहते हैं। साढ़े पच्चीस जनपदोंमें जो उत्पन्न होते हैं, वे प्रायःकरके आर्य होते हैं । आर्योंके छह भेद हैं, जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है। अतएव क्षेत्र जाति कुल कर्म शिल्प और भाषा इनकी अपेक्षासे ज्ञान दर्शन और चारित्रके विषयमें जिनका आचरण और शील शिष्ट लोकोंके द्वारा अभिमत तथा न्याय्य और धर्मसे अविरुद्ध रहा करता है, उनको आर्य कहा है । जिनका आचरण और शील इससे विपरीत है, तथा जिनकी भाषा और चेष्टा अव्यक्त एवं अनियत है, उनको म्लेच्छ समझना चाहिये । इसी बातको खुलासा करते हुए म्लेच्छोंके भेदोंको भी बतानेके लिये भाष्यकार कहते हैं---
भाष्यम्-अतो विपरीता म्लिशः। तद्यथा-हिमवतश्चतसृषु विदिक्षु त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य चतसृणां मनुष्यविजातीनां चत्वारोऽन्तरद्वीपा भवन्ति त्रियोजनशतविष्कम्भायामाः । तद्यथा-एकोरुकाणामाभाषकाणी लाइलिनां वैषाणिकानॉमिति॥ चत्वारि योजनशतान्यवगाद्य चतुर्योजनशतायामविष्कम्भा एवान्तरद्वीपाः । तद्यथा-हयकर्णानां गजकर्णानां गोकर्णानां शष्कुलिकर्णानामिति ॥ पञ्चशतान्यवगाह्य पञ्चयोजनशतायामविष्कम्भा एवान्तरद्वीपाः। तद्यथा-गजमुखानां व्याघ्रमुखानामादर्शमुखानां गोमुखानामिति ॥ षड्योजनशतान्यवगाह्य तावदायामविष्कम्भा एवान्तरद्वीपाः । तद्यथा-अश्व
१-गुणैः गुणवद्भिर्वा अर्यन्ते इत्यार्याः। २-दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार जिनमें वर्णाचार पाया जाय, उनको आर्य, और जिनमें वह न पाया जाय, उनको म्लेच्छ कहते हैं । आर्योंके मूलमें दो भेद हैं-ऋद्धिप्राप्त, अनद्धिप्राप्त । ऋद्धिप्राप्तके सात भेद हैं-बुद्धि तप विक्रिया औषध रस बल और अक्षीण । कहीं कहीं पर आठ भेद भी बताये हैं। इनके उत्तरभेद अनेक हैं। अनृद्धिप्राप्त आर्यों के भी अनेक भेद हैं, किन्तु उनके पाँच भेद मुख्य है क्षेत्रार्य जात्यार्य कर्मार्य चारित्रार्य और दर्शनार्य । आर्यक्षेत्रमें उत्पन्न होनेवालोंको क्षेत्रार्य, जिसमें उच्च गोत्रका उदय पाया जाता है, ऐसे विशुद्ध मातृवंशमें उत्पन्न होनेवालोंको जात्यार्य, वर्णाचारके अनुसार आजीविका करनेबालोंको कार्य, संयम धारण करनेवाले अथवा उसके पात्रोंको चारित्रार्य, और सम्यग्दृष्टि मनुष्यों को दर्शनार्य कहते हैं । ३-हिमवतः प्राक् पश्चाच्च चतसृषु इति पाठान्तरम् । ४-आभासिकानाम् इति च पाठः । ५-विषाणिनामिति वा पाठः । ६-चतुर्योजनशतविष्कम्भाः । एवमेव हयकर्णानाम् इति क्वचित्पाठः । ७-पंचयोजनशतानीति पाठान्तरम् । ८-आदर्शमेषयगजमुखनामानः इति वा पाठः ।
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