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________________ सूत्र ११।। सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । चलकर पाण्डकवन है। इसकी भी चौड़ाई चार सौ चौरानवे योजनकी ही है। ऊपर और नीचेका विष्कम्भ तथा अवगाह महामेरुके समान है। चारोंकी चूलिकाका प्रमाण भी महामेरुकी चूलिकाके समान ही समझना चाहिये । भावार्थ-धातकी खण्डमें दो और पुष्करार्धमें दो इस तरह चार जो मेरु हैं, वे क्षुद्रमेरु कहे जाते हैं। क्योंकि इनका प्रमाण महामेरु-जम्बूद्वीपके मध्यवर्ती सुदर्शनमेरुसे कम है । किन्तु चारोंका प्रमाण परस्परमें समान है। महामेरुसे इनके किस किस भागका प्रमाण कितना कितना कम है, अथवा समान है, सो ऊपर बताया है। अर्थात् इनकी ऊँचाई ८४ हजार योजन है। पृथिवीतलका विष्कम्भ ९४०० योजन है। चारों मेरुओंके पृथ्वीके भीतरका अवगाह महामेरुके समान एक हजार योजन है। दूसरा काण्डक ५६ हजार योजनका है। तीसरा काण्डक २८ हजार योजनका है । भद्रशालवन और नन्दनवन महामेरुके समान हैं। इन चारों क्षुद्रमेरुओंके नीचे चारों तरफ पृथ्वीपर महामेरुके समान भद्रशालवन है । उससे पाँचसौ योजन ऊपर चलकर नन्दनवन है। उससे साढे छप्पन हजार योजन ऊपर चलकर सौमनस वन है । उससे २८ हजार योजन ऊपर चलकर पाण्डुकवन है। सौमनसका विस्तार ५०० योजन और पाण्डुकवनका विस्तार ४९४ योजनका है। इसके सिवाय ऊपर नीचे तथा चलिकाका प्रमाण महामेरुके समान ही समझना चाहिये । ___इस प्रकार क्षुद्र मेरुओंका स्वरूप बताकर अब कुछ गणितके नियमोंका उल्लेख करते हैं जिससे कि द्वीप समुद्रादिककी परिधि जीवा आदिका स्वरूप सुगमतासे और अच्छी तरह समझमें आजाय विष्कम्भके वर्गको दशगुणा करके वर्गमूल निकालनेपर गोल क्षेत्रकी परिधिका प्रमाण निकलता है । परिधिका विष्कम्भके चौथाई भागसे गुणा करनेपर गणितपद निकलता है । इस नियमके अनुसार जम्बूद्वीपकी परिधिका प्रमाण और जम्बद्वीपमें एक एक योजनके चौकोर खण्ड कितने हो सकते हैं, सो समझमें आसकता है। इच्छित अवगाहका जितना प्रमाण हो, उसको विष्कम्भमेंसे घटानेपर पुनः अवगाह प्रमाणसे गुणा करके चौगुणा करना चाहिये, ऐसा करनेपर जो राशि उत्पन्न हो उसका वर्गमूल निकालना चाहिये । इससे गोल क्षेत्रकी जीवाका प्रमाण निकलता है। अतएव इस विधिके अनुसार जम्बूद्वीपके मध्यवर्ती भरतादिक क्षेत्रोंकी जीवाका प्रमाण कितना है, सो समझमें आ सकता है। ___ जीवाका वर्ग और विष्कम्भका वर्ग करके दोनोंकी बाकी निकालनी चाहिये । पुनः बाकीका वर्गमूल निकालकर विष्कम्भके प्रमाणसे शोधन करना चाहिये । जो शेष रहे उसका १-यही पहला काण्डक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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