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________________ १७० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [ तृतीयोऽध्यायः भीतरकी गहराई और जमीनसे ऊपरकी उँचाई समान हैं। जितनी दक्षिणके वैताढ्यकी लंबाई आदिक है, उतनी ही उत्तरके वैताढ्यकी है। इसी तरह हिमवान् और शिखरीपर्वतकी लम्बाई आदिक परस्परमें समान हैं। जितनी हिमवानकी है, उतनी ही शिखरीकी हैं। महाहिमवान् और रुक्मीकी समान हैं । तथा निषध और नीलकी समान हैं। भावार्थ-विदेहसे उत्तरकी तरफ जो पर्वत हैं, उनकी लम्बाई चौड़ाई आदिका प्रमाण उत्तरके पर्वतोंके समान समझना चाहिये । जिस तरह भरत ऐरावत आदि क्षेत्रोंका प्रमाण परस्परमें समान है, उसी प्रकार दक्षिण उत्तरके वैताढ्य आदि पर्वतोंका आयाम विष्कम्भ अवगाह और उच्छ्राय परस्परमें एक सरीखा समझना चाहिये । इस प्रकार जम्बद्वीपके क्षेत्र पर्वतोंका प्रमाण बताकर एक विशेष बातका उल्लेख करते हैं। ऊपर विदेहक्षेत्रके मध्यमें मेरुका वर्णन किया है। इसी तरह-जम्बद्वीपके समान धातकीखण्ड और पुष्करार्धद्वीपके विदेहोंमें भी मेरु हैं। किन्तु जम्बद्वीपले घातकीखण्ड और पुष्करार्धका प्रमाण दूना है । अतएव इन दोनों द्वीपोंमें विदेहक्षेत्र दो दो हैं। और इसी लिये इन चार विदेहोंके मेरु भी चार हैं। किन्तु इन चारोंका प्रमाण जम्बूद्वीपके मेरुके समान नहीं है, कम है। कितना प्रमाण है सो बताते हैं____ भाष्यम्--क्षुद्रमन्दरास्तु चत्वारोऽपि धातकीखण्डकपुष्कराधका महामन्दरात्पञ्चदशभियोजनसहस्त्रैहीनोच्छ्रायाः। षभियोजनशतैर्धरणितले हीनविष्कम्भाः। तेषां प्रथम काण्डम् महामन्दरतुल्यम् । द्वितीयं सप्तभिहीनं; तृतीयमष्टाभिः । भद्रशालनन्दनवने महामन्दरवत् । ततो अर्धषट् पञ्चाशद्योजनसहस्राणि सौमनसं पञ्चशतं विस्तृतम् । ततोऽष्टाविंशतिसहस्राणि चतुर्नवतिचतुःशतविस्तृतमेव पाण्डकं भवति । उपरि चाधश्च विष्कम्भोऽवगाहश्च तुल्यो महामन्दरेण, चूलिका चेति॥ विष्कम्भकृतेर्दशगुणाया मूलं वृत्तपरिक्षेपः । स विष्कम्भपादाभ्यस्तो गणितम् । इच्छावगाहोनावगाहाभ्यस्तस्य चतुर्गुणस्य मूलं ज्या। ज्याविष्कम्भयोर्वर्गविशेषमूलं विष्कम्भाच्छोध्यं शेषार्ध मिषुः । इषुवर्गस्य षड्गुणत्य ज्यावर्गयुतस्य कृतस्य मूलं धनुःकाष्ठम् । ज्यावर्गचतुर्भागयुक्तमिषुवर्गमिषुविभक्तं तत्प्रकृतिवृत्तविष्कम्भः । उदग्धनुःकाष्ठाइक्षिणं शोध्यं शेषार्ध बाहुरिति । अनेन करणाभ्युपायेन सर्वक्षेत्राणां सर्वपर्वतानामायामविष्कम्भज्येषुधनुः काष्ठपरिमाणानि ज्ञातव्यानि ॥ अर्थ-धातकीखण्ड और पुष्करार्धसम्बन्धी चारों क्षुद्र मेरुओंकी उँचाईका प्रमाण महामेरुसे पंद्रह हजार योनन कम है । पृथिवीके भीतरका विष्कम्भ छह सौ योजन कम है । चारों मेरुओंका पहला काण्ड महामेरुके प्रथम काण्डके समान है । दूसरा काण्ड सात हजार योजन कम है। तीसरा काण्ड आठ हजार योजन कम है । भद्रशालवन और नन्दनवन महामेरुके समान हैं। नन्दनवनसे साढ़े पचपन हजार योजन ऊपर चलकर सौमनसवन है, इसकी भी चौड़ाई पाँच सौ योजनकी ही है । सौमनससे अट्ठाईस हजार योजन ऊपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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