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________________ १६९ सूत्र ११ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । अर्थ-विदेहक्षेत्रमें देवकुरु और उत्तरकुरु नामके दो क्षेत्र हैं, जहाँपर सदा भोगभूमि ही रहा करती है । निषधपर्वतसे उत्तरकी तरफ और मेरुसे दक्षिणकी तरफ जो क्षेत्र है। उसको देवकुरु कहते हैं । यह क्षेत्र अनेक पर्वतोंसे शोभायमान है । इसमें पाँच सरोवरोंके दोनों बाजुओंमें अवस्थित दश दश सुवर्णगिरि हैं, और सीतोदानदीके पूर्व तथा पश्चिमकी तरफ चित्रकूट और विचित्रकूट नामके दो पर्वत हैं। ये दोनों एक हजार योजन ऊँचे हैं, पृथ्वीपर इनकी चौड़ाई एक हजार योजन और ऊपर चलकर पाँच सौ योजन है । देवकुरुकी चौड़ाई ग्यारह हजार आठ सौ योजन और एक योजनके ब्यालीस भागोंमेंसे दो भाग ११८००४३ योजन है। इसी प्रकार मेरुसे उत्तरमें और नीलपर्वतसे दक्षिणकी तरफ उत्तरकुरु भोगभूमि है । इसमें यह विशेषता है, कि चित्रकूट और विचित्रकूट नामके दोनों पर्वत नहीं हैं । इनकी जगहपर इस क्षेत्रमें सीतानदीके किनारेपर दो सुवर्णमय यमक पर्वत हैं, जिनका कि प्रमाण चित्रकट और विचित्रकूटके समान ही है । इसका विस्तार भी देवकुरुके समान है, और इसमें काञ्चनगिरिपर्वत भी देवकुरुके समान ही अवस्थित हैं। यद्यपि जम्बूद्वीपके ठीक मध्यमें और निषध नील पर्वतके अन्तरालमें सामान्यसे विदेह. क्षेत्र एक ही है, तो भी मेरुपर्वत और देवकुरु तथा उत्तरकुरुसे विभक्त होकर क्षेत्रान्तरके समान उसके जुदे जुदे विभाग हो गये हैं। विदेहके मूल विभाग दो हैं-पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह । मेरुके पूर्व भागको पूर्व विदेह और पश्चिम भागको पश्चिम विदेह कहते हैं। इनमें भी प्रत्येकके सोलह सोलह भाग हैं, और सोलहमेंसे भी प्रत्येकके छह छह खण्ड हैं, जिनकी कि चक्रवर्ती विजय किया करता है। ये खण्ड नदी और पर्वतोंसे विभक्त होकर हुए हैं। इनके निवासियोंका परस्परमें गमनागमन नहीं हुआ करता । पूर्व विदेह और पश्चिम विदेहके विभाग और उनका प्रमाण आदि तुल्य है। भावार्थ-मेरुके पूर्व और पश्चिमके दोनों भागोंको चार चार वक्षारगिरि और तीन तीन विभंगा नदियोंके मध्यमें एक तरफ सीता और दूसरी तरफ सीतोदानदीके पड़ जानेसे सोलह सोलह भाग हो गये हैं। इन्हींको जम्बुद्वीप सम्बन्धी ३२ विदेह कहते हैं। प्रत्येक भागके भी भरतक्षेत्रके समान छह छह खण्ड हैं। क्योंकि भरतके समान इन प्रत्येक भागोंमें भी एक एक विजया और गंगा सिंधु नामकी दो दो नदियाँ हैं। भरतके समान यहाँके छह छह खंडोंका विजेता भी एक एक चक्रवर्ती हुआ करता है। आपसमें इन क्षेत्रोंके निवासियोंका गमनागमन नहीं हुआ करता। विदेहमें एक समयमें ज्यादःसे ज्यादः ३२ चक्रवर्ती अथवा तीर्थकर हो सकते हैं। तीर्थंकर कमसे कम ४ भी हो सकते हैं। पाँचों मेरुसम्बन्धी तीर्थकर कमसे कम २. हो सकते हैं, क्योंकि एक एक मेरु के चार चार विदेह हैं। दक्षिण और उत्तरमें जो वैताढ्यपर्वत हैं, उन दोनोंकी लम्बाई चौड़ाई जमीनके २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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