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________________ १६८ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीयोऽध्यायः भरतवर्षस्य योजनानां चतुर्दशसहस्राणि चत्वारि शतान्येकसप्ततीनि षट् च भागा विशेषतो ज्या । इषुर्यथोक्तो विष्कम्भः । धनुकाष्ठं चतुर्दश सहस्राणि शतानि पञ्चाष्टविंशान्येकादश च भागाः साधिकाः ॥ भरतक्षेत्रमध्ये पूर्वापरायत उभयतः समुद्रमवगाढो वैताढ्यपर्वतः षड् योजनानि सकोशानि धरणिमवगाढः पञ्चाशद्विस्तरतः पञ्चविंशत्युच्छ्रितः ॥ अर्थ: -- उपर्युक्त छह कुलाचलोंमेंसे हिमवान्पर्वतका अवगाह पच्चीस योजन और ऊँचाई एक सौ योजन की है। इससे दूना अर्थात् १० योजन अवगाह और दो सौ योजन उँचाई महाहिमवान्की है । इससे भी दूना प्रमाण अर्थात् १०० योजन अवगाह और चार सौ योजन उँचाई निषेधकी है । निषधके समान नीलका, महाहिमवान्‌ के समान रुक्मीका, और हिमवान् के समान शिखरीका प्रमाण समझना चाहिये । भरतक्षेत्रका प्रमाण तीन तरहसे जानना चाहिये- ज्या इ और धनुकाष्ठ । हिमवान् पर्वत से लगी हुई धनुष्की डोरीके समान जो रेखा है, उसको ज्या कहते हैं । उसका प्रमाण चौदह हजार चार सौ योजन और एक योजनके ७१ भागमेंसे ६ भाग ( १४४०० योजन ) है | धनुषपर बाण रखने की जगह के समान भरतक्षेत्रकी उत्तर दक्षिण मध्यवर्ती जो रेखा है, उसको इषु कहते हैं, उसका प्रमाण ऊपर लिखे अनुसार ही समझना चाहिये, अर्थात् ५२६ १९ योजन । धनुष की लकड़ी के समान समुद्रके निकटवर्ती परिधिरूप जो रेखा है, उसको धनुकाष्ठ कहते हैं । उसका प्रमाण चौदह हजार पाँचसौ योजन और एक योजनके २८ भागोंमेंसे ११ भाग ( १४५००३ योजन ) से कुछ अधिक है । भरतक्षेत्रके मध्य भागमें एक वैताढ्य नामका पर्वत है, जिसको कि विजयार्घ आदि नामोंसे भी कहते हैं, वह पूर्व पश्चिम लम्बा है, और इन दोनों ही भागों में समुद्रका स्पर्श कर रहा है - इसका पूर्व भाग पूर्वसमुद्रमें और पश्चिम भाग पश्चिम समुद्रमें प्रविष्ट हो गया है। सवा छह योजन पृथ्वीके भीतर है, तथा पचास योजन उत्तर दक्षिण चौड़ा एवं पच्चीस योजन ऊँचा है 1 भाष्यम् - विदेहेषु निषधस्योत्तरतो मन्दरस्य दक्षिणतः काञ्चनपर्वतशतेन चित्रकूटेन विचित्रकूटेन चोपशोभिता देवकुरवो विष्कम्भेणैकादशयोजन सहस्राण्यष्टौ च शतानि द्विचत्वारिंशानि द्वौ च भागौ, एवमेवोत्तरेणोत्तराः कुरवश्चित्रकूट विचित्रकूटहीना द्वाभ्यां च काञ्चनाभ्यामेव यमकपर्वताभ्यां विराजिताः ॥ विदेहा मन्दरदेव कुरूत्तरकुरुभिर्विभक्ता क्षेत्रान्तरवद्भवन्ति । पूर्वे चापरे च । पूर्वेषु षोडश चक्रवर्तिविजया नदीपर्वतविभक्ताः परस्परागमाः अपरेऽप्येवंलक्षणाः शोडशैव ॥ तुल्यायामविष्कम्भावगाहोच्छ्रायौ दक्षिणोत्तरौ वैताढ्यौ तथा हिमवच्छिखरिणौ महाहिमagक्मिणौ निषधनीलौ चेति ॥ १-- भरत क्षेत्रके छह खंड हैं। तीन भाग विजयार्धके उत्तर में और तीन भाग दक्षिणमें है । चक्रवर्ती छहों खण्डको जीतता है, विजयार्ध तक उसकी आधी विजय हो जाती है, इसी लिये इसको विजयार्ध कहते हैं । जो अर्धचक्री-नारायण होते हैं, वे वहीं तक विजय प्राप्त करते हैं । विजयार्ध उत्तर भाग में सम्मिलित है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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