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________________ सूत्र १०-११] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । च विभक्ता महाहिमवान्, इत्येवं शेषाः । तत्र पञ्च योजनशतानि षविंशानि षट्चैकोनविंशतिभागा (५२६६९) भरतविष्कम्भःस द्विििहमवद्धैमवतादीनामाविदेहेभ्यः । परतो विदेहे भ्योऽर्धार्धहीनाः अर्थ-उपर्युक्त सात क्षेत्रोंका विभाग करनेवाले ये छह पर्वत हैं । हिमवान् महाहिमवान् निषध नील रुक्मी और शिखरी । इनको वर्षधरपर्वत कहते हैं । क्योंकि ये पर्वत बीचमें पड़कर क्षेत्रोंको विभक्त कर देते हैं, और ऐसा करके उस विभागको तथा क्षेत्रोंको धारण करते हैं। किस किस क्षेत्रका विभाग करनेवाला कौन कौनसा पर्वत है ? तो इसके लिये यथाक्रमसे ही घटित करके समझ लेना चाहिये । अतएव जिस प्रकार भरत और हैमवतकका विभाग करनेवाला हिमवान्पर्वत है, और हैमवतक तथा हरिवर्षका विभाजक महाहिमवान् है, उसी प्रकार शेष क्षेत्र और पर्वतोंके विषयमें क्रमसे घटित कर लेना चाहिये, अर्थात् हरिवर्ष और विदेहका विभाजक निषधपर्वत है। विदेह और रम्यकका विभक्ता नील है । रम्यक और हैरण्यवतका भेदक रुक्मीपर्वत है । हैरण्यवत और ऐरावतका व्यवस्थाकारी शिखरीपर्वत है। छह कुलाचलोंके द्वारा विभक्त इन सात क्षेत्रोंका प्रमाण इस प्रकार है ।-पहले भरत क्षेत्रका प्रमाण पाँचसौ छब्बीस योजन और एक योजनके उन्नीस भागोंमेंसे छह भाग है। अर्थात् ६२६ ६ योजन प्रमाण भरतक्षेत्रका विष्कम्भ है। भरतसे आगे हिमवान्पर्वत और हैमवत आदि क्षेत्रोंका विष्कम्भ दूना दूना समझना चाहिये । किन्तु यह द्विगुणता विदेहपर्यन्त ही है आगे नहीं । विदेहसे आगे पर्वत और क्षेत्रोंका विष्कम्भ क्रमसे आधा आधा होता गया है। भावार्थ-मेरुसे उत्तर और दक्षिणके क्षेत्र तथा कुलाचल आदिका प्रमाण समान है। जैसा कि “ उत्तरा दक्षिणतुल्याः ” इस कथनसे स्पष्ट है । अतएव भरतक्षेत्रसे विदेह पर्यन्त क्षेत्र पर्वत हूद आदिका जो प्रमाण है, उसी प्रकार विदेहसे ऐरावत पर्यन्त समझना चाहिये । इसी लिये यहाँपर ऐसा कहा गया है, कि भरतसे विदेह तक दना दना और विदेहसे ऐरावत तक आधा आधा प्रमाण है। अर्थात् भरतक्षेत्रका प्रमाण ५२६६ योजन है, इतना ही प्रमाण ऐरावतक्षेत्रका है। हिमवान् शिखरी आदिका भी इसी क्रमसे समान प्रमाण समझ लेना चाहिये । यथा-हिमवान् और शिखरीका प्रमाण १०५२३३ योजन, हैमवत हेरण्यवतका प्रमाण २१०५ १९ योजन, महाहिमवान् और रुक्मीका प्रमाण ४२१० १६ योजन, हरि और रम्यकका प्रमाण ८४२१ कर योजन, निषध और नीलका प्रमाण १६८४२ करे योजन, विदेहका प्रमाण ३३६८४ र योजन है । - अब इन पर्वतोंका अवगाह तथा उँचाई आदिका एवं जीवा धनुष आदिका विशेष प्रमाण बतानेके लिये वर्णन करते हैं भाष्यम्-पञ्चविंशतियोजनान्यवगाढो योजनशतोच्छायो हिमवान् । तद्दिमहाहिमवान् । तद्दिर्निषध इति ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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