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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [ तृतीयोऽध्यायः पर्वयुक्त हुआ करते हैं, ये भरतादिक भी वंशादिककी तरहसे विभागोंको करनेवाले अथवा धारण करनेवाले हैं । अतएव इनको वंश-क्षेत्र कह सकते हैं। इसी तरह वर्ष और वास्य शब्दका अर्थ भी समझ लेना चाहिये। क्योंकि इनको वर्षके सन्निधानसे वर्ष और इनमें मनुष्यादिका वास होनेसे वास्य कहते हैं। दिशाओंका नियम व्यवहारनयकी अपेक्षासे तो सूर्यकी गतिके हिसाबसे ही माना गया है। इस हिसाबसे मेरु सभी क्षेत्रोंसे उत्तर दिशाकी तरफ पड़ता है। क्योंकि लोकमें ऐसा व्यवहार है, कि निधरको सूर्यका उदय होता है, वह पूर्व दिशा है, उसके ठीक उल्टी तरफ-जिधर सूर्यका अस्त होता है, वह पश्चिम दिशा है। जिधरकी तरफ कर्कस लेकर धन तककी छह राशियाँ व्यवस्थित हों, उसको दक्षिण, और मकरसे लेकर मिथुन तककी छह राशियाँ जिघरको व्यवस्थित हों, उसको उत्तर दिशा कहते हैं । इस व्यवहारके अनुसार सभी क्षेत्रवालोंके लिये मेरु उत्तरकी तरफ पड़ता है। किन्तु यह वास्तविक कथन नहीं है, केवल व्यवहारमात्र है। क्योंकि सूर्यके उदय अस्तके हिसाबसे ही पूर्व पश्चिम आदि दिशाओंका यदि नियम माना जायगा,तो एक यह बड़ा विरोध आकर उपस्थित होगा, कि सब जगह सभी दिशाओंका सद्भाव मानना पड़ेगा, और उससे व्यवहारका लोप होगा। क्योंकि निधर सूर्यका उदय हो, उधर पूर्व और जिधर अस्त हो उधर पश्चिम, ऐसा नियम माननेपर हमारे लिये जिधर पूर्व है, उधरको ही पूर्वविदेहवालोंके लिये पश्चिम है । अतएव व्यवहार विरुद्ध हो जाता है, और इसी लिये इस नियमको केवल व्यवहाररूप ही समझना चाहिये, न कि निश्चयरूप । निश्चयनयकी अपेक्षासे दिशा. ओंका नियम किस प्रकार है सो बताते हैं लोकके ठीक मध्य भागमें रुचकके आकार-चौकोण आठ प्रदेश अवस्थित हैं, निश्चय नयसे उन्हींको दिशाओंके नियमका कारण समझना चाहिये । इन आठ प्रदेशोंसे ही चार दिशा और चार विदिशाओंका नियम बनता है । किन्तु इस नियमके अनुसार मेरु उत्तरमें ही हो यह बात नहीं ठहरती; किन्तु यथासम्भव दिशाओंमें माना जा सकता है । अतएव निश्चयनयसे मेरु भिन्न भिन्न क्षेत्रोंमें रहनेवालोंके लिये भिन्न भिन्न दिशाओंमें समझना चाहिये ।। जम्बूद्वीपमें सात क्षेत्र हैं, ऐसा ऊपर लिख चुके हैं, किन्तु ये विभाग तबतक नहीं हो सकते, जबतक कि इन विभागोंको करनेवाला कोई न हो। अतः इनके विभाजक कुलाचलोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं: सूत्र-तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवनिषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः ॥ ११ ॥ ___ भाष्यम्--तेषां वर्षाणां विभक्तारः हिमवान् महाहिमवान् निषधो नीलो रुक्मी शिखरीत्येते षड़ वर्षधराः पर्वताः। भरतस्य हैमवतस्य च विभक्ता हिमवान्, हैमवतस्य हरिवर्षस्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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