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________________ सूत्र ९-१०] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ___ इस मेरुपर्वतके ऊपर एक चूलिका-शिखर, है जो कि चालीस योजन ऊँची है । इसकी चौड़ाई मूलमें बारह योजन मध्यमें आठ योजन और अन्तमें चार योजन है। चूलिकाके भागमें प्रायः करके वैडूर्यमणि ही पाई जाती हैं। मेरुके मूलमें पृथिवीके ऊपर भद्रशालवन है, जो कि गोल और चारों तरफसे मेरुको घेरे हुए है। भद्रशालवनसे पाँचसौ योजन ऊपर चलकर उतनी ही प्रतिक्रान्तिके विस्तारसे युक्त नन्दनवन है। नन्दनवनसे साढ़े बासठ हजार योजन ऊपर चलकर सौमनसवन है। इसकी चौड़ाई पाँचसौ योजनकी है । सौमनसवनसे छत्तीस हजार योजन ऊपर चलकर चौथा पाण्डकवन है । इसकी चौड़ाई चारसौ चौरानवे योजनकी है। मेरुका विष्कम्भ सर्वत्र एकसा नहीं है, और न कहीं कुछ कहीं कुछ ऐसा अव्यवस्थित है । किन्तु उसके विष्कम्भके प्रदेश क्रमसे घटते गये हैं । इस हानिका प्रमाण इस प्रकार है, कि नन्दनवन और सौमनसवनसे लेकर ग्यारह म्यारह हजार प्रदेशोंके ऊपर चलकर विष्कम्भके एक एक हजार प्रदेश घटते गये हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीपका विस्तार और आकार आदि बताया। इसमें एक विशेष बात और भी है, वह यह कि यह सात क्षेत्रोंसे विभक्त है । अर्थात् इस जम्बूद्वीपके सात भाग हैं, जिनको कि सात क्षेत्र कहते हैं। वे सात क्षेत्र कौनसे हैं, सो बतानेके लिये सूत्र कहते हैं सूत्र-तत्र भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ॥१०॥ भाष्यम्-तत्र जम्बूद्वीपे भरतहैमवतं हरयो विदेहा रम्यक हैरण्यवतमैरावतमितिसप्त वंशाः क्षेत्राणि भवन्ति । भरतस्योत्तरतः हैमवतम्, हैमवतस्योत्तरतः हरयः, इत्येवं शेषाः। वंशा वर्षा वास्या इति चैषां गुणतः पर्यायनामानि भवन्ति । सर्वेषां चैषां व्यवहारनयापेक्षादादित्यकृतादिनियमादुत्तरुतो मेरर्भवति, लोकमध्यावस्थितं चाष्टप्रदेशं रुचकं दिग्नियमहेतुं प्रतीत्य यथासम्भवं भवतीति ॥ __ अर्थ--जिसका कि प्रमाण और आकार ऊपर बताया जा चुका है, उस जम्बुद्वीपमें ही मरत हैमवत हरि विदेह रम्यक हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। भरतसे उत्तरकी तरफ हैमवतक क्षेत्र है, और हैमवतकसे उत्तरकी तरफ हरि क्षेत्र है । इसी तरह दूसरे क्षेत्रोंके विषयमें भी समझना चाहिये । अर्थात् हरिसे उत्तरमें विदेह, विदेहसे उत्तरमें रम्यक, रम्यकसे उत्तरमें हैरण्यवत और हैरण्यवतसे उत्तरमें ऐरावत क्षेत्र है। वंश वर्ष और वास्य ये इन क्षेत्रोंके पर्यायवाचक नाम हैं, और ये नाम अन्वर्थ-गुणकी अपेक्षासे हैं । क्योंकि वंश १-इस विषयमें टीकाकारने लिखा है कि “ एषा च परिहाणिराचार्योक्ता न मनागपि गणितप्रक्रियया सङ्गञ्छते ।” और इस बातको हेतुपूर्वक गणित करके बताया भी है, विशेष बात जाननेके लिये वहींपर खुलासा देखना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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