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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीयोऽध्यायः वलयवृत्त हैं, किन्तु जम्बूद्वीप प्रतरवृत्त है। यदि वृत्त शब्द न दिया जाता, तो विपरीत अर्थका भी कोई ग्रहण कर सकता था । क्योंकि गोल पदार्थके द्वारा जो घिरी हुई हो, वह भी गोल ही हो ऐसा नियम नहीं हो सकता। चौकोण अथवा त्रिकोण आदि वस्तुभी गोल पदार्थके द्वारा घिरी हुई हो सकती हैं। अतएव वृत्त शब्दके न रहनेपर लवणोदादिकको गोल समझकर भी जम्बद्वीपको कोई चौकोण आदि समझ सकता था। सो ऐसा विपरीत अर्थ कोई न समझ ले इसी लिये सूत्रमें वृत्त शब्दका पाठ किया है । अर्थात् जम्बूद्वीपका आकार प्रतरवृत्त है । भाष्यम्-मेरुरपि काञ्चनस्थालनाभिरिव वृत्तो योजनसहस्रमधोधरणितलमवगाढो नवनवत्युच्छ्रितो दशाधो विस्तृतःसहस्रमुपरीति। त्रिकाण्डस्त्रिलोकप्रविभक्तमूर्तिश्चतुर्भिर्वनैर्भद्र शालनन्दनसौमनसपाण्डकैः परिवृतः। तत्र शुद्धपृथिव्युपलवज्रशर्कराबहुलं योजनसहस्र मेकं प्रथमं काण्डम् । द्वितीयं त्रिषष्ठिसहस्राणि रजतजातरूपाङ्क स्फटिक बहुलम् तृतीयं षट्त्रिंशत्सहस्राणि जाम्बूनदबहुलम् । वैडूर्यबहुला चास्य चूलिका चत्वारिंशद्योजनान्युच्छ्रायेण मूले द्वादश विष्कम्भेण मध्येऽष्टावुपरिचत्वारीति । मूले वलयपरिक्षेपि भद्रशालवनम् । भद्रशालवनात्पञ्च योजनशतान्यारुह्य तावत्प्रतिकान्तिविस्तृतं नन्दनम् । ततोऽत्रिषष्ठिसहस्राण्यारुद्ध पञ्चयोजनशतप्रतिक्रान्तिविस्तृतमेव सौमनसम् । ततोऽपि षत्रिंशत्सहस्राण्यारुह्य चतुर्नवतिचतुःशतप्रतिक्रान्तिविस्तृतं पाण्डकवनमिति । नन्दनसौमनसाभ्यामेकादशैकादशसहस्राण्यारुह्य प्रदेशपरिहाणिर्विष्कम्भस्येति । अर्थ-मेरु भी सुवर्णके थालके मध्यकी तरह गोल हैं। इसकी उँचाई एक लाख योजनकी है। जिसमेंसे एक हजार योजन पृथिवीके नीचे प्रविष्ट है । बाकी ९९ हजार पृथिवीके ऊपर है। इस उपरके भागको दृश्य भाग और पृथिवीके भीतर प्रविष्ट एक हजारके भागको अदृश्य भाग समझना चाहिये । अदृश्य भागकी चौड़ाई दश हजार योजनकी है, और उँचाई एक हजार योजन है। मेरुके उपर दृश्य भागमें तीन काण्डक-मेखला-कटिनी हैं। यह मेरु पर्वत मानों तीनों लोकोंका विभाग करनेके लिये माप करनेकी मूर्ति ही है। क्योंकि मेरुके नीचे अधोलोक और ऊपर ऊर्ध्वलोक तथा मेरुकी बराबर तिर्यग्लोक-मध्यलोकका प्रमाण है । भद्रशाल नन्दन सौमनस और पाण्डक इन चार वनोंसे चारों तरफ-सब तरफसे घिरा हुआ है। तीन काण्डकोंमेंसे पहला काण्डक एक हजार योजन ऊँचा है, जोकि पृथिवीके भीतर अदृश्य भाग है । इस काण्डकमें शुद्ध पृथिवी पत्थर हीरा और शर्करा ही प्रायः पाई जाती है। दूसरा और तीसरा काण्डक पृथिवीके ऊपरके दृश्य भागमें है। दूसरा काण्डक पृथिवीतलसे लेकर त्रेसठ हजार योजनकी उँचाई तक है । इस काण्डकमें प्रायः करके चाँदी सुवर्ण अङ्क-रत्नविशेष और स्फटिक ही पाया जाता है। दूसरे काण्डकके ऊपर छत्तीस हजार योजनकी उँचाईवाला तीसरा काण्डक है । इस काण्डकमें प्रायः सुवर्ण ही है। १-मूलमें जो वाक्य है, उसका अर्थ ऐसा भी हो सकता है, कि यह मेरुपर्वत सुवर्णमय तथा थालीके मध्यके समान गोल है । २--" मेस्स्स हिडभाए सत्तवि रज्जू हवेअहोलोओ। उड्ढम्हि उड्ढलोओ मेरुसमो मज्झिमो लोओ ।। १२०॥ -स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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