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________________ सूत्र ७।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । नन्तरः समुद्रः समुद्रादनन्तरो द्वीपो यथासंख्यम् । तद्यथा-जम्बूद्वीपो द्वीपः लवणोदः समुद्रः धातकीखण्डो द्वीपः कालोदः समुद्रः पुष्करवरो द्वीपःपुष्करोदः समुद्रावरुणवरो द्वीपो वरुणोदः समुद्रः क्षीरवरो द्वीपः क्षीरोदः समुद्रो घृतवरो द्वीपो घृतोदः समुद्रः इक्षुवरो द्वीप इक्षुवरोदः समुद्रः नन्दीश्वरो द्वीपो नन्दीश्वरवरोदः समुद्रः अरुणवरो द्वीपः अरुणवरोदः समुद्र इत्येवमसंख्येया द्वीपसमुद्राः स्वयम्भूरमणपर्यन्ता वेदितव्या इति ॥ अर्थ---जम्बूद्वीप आदिक द्वीप और लवणसमुद्र आदिक समुद्र तिर्यग्लोकमें असंख्यात हैं । इन सबके नाम अति शुभ हैं । लोकमें जितने भी शुभ नाम हैं, वे सब इन द्वीप और समुद्रोंके पाये जाते हैं । अथवा इनके जो नाम हैं, वे सब शुभ ही हैं, इनमेंसे अशुभ नाम किसीका भी है ही नहीं । इन द्वीप समुद्रोंका सन्निवेश किस प्रकारका है ? विमानोंकी तरह प्रकीर्णकरूप हैं, अथवा अधः अधः अवस्थित हैं, या अन्य ही तरहसे हैं ? उत्तर-न प्रकीर्णक हैं और न अधः अधः अवस्थित हैं । किन्तु इनका सन्निवेश इस प्रकार है, कि द्वीपके अनन्तर समुद्र और समुद्रके अनन्तर द्वीप । इसी क्रमसे अन्तके स्वयम्भरमणसमुद्र पर्यन्त पहलेको दूसरा बेढ़े हुए अवस्थित हैं । जैसे कि सबसे पहला द्वीप जम्बूद्वीप है, उसके अनन्तर जम्ब. द्वीपको चारों तरफसे घेरे हुए लवणसमुद्र है। इसी क्रमसे आगे आगे भी द्वीप समुद्रोंको अन्तके समुद्र तक समझना चाहिये । अर्थात् लवणसमुद्रके अनन्तर धातकीखण्ड द्वीप है, उसके अनन्तर कालोदसमुद्र है, उसके बाद पुष्करवर द्वीप है, उसके बाद पुष्करवरसमुद्र है, उसके बाद वरुणवरद्वीप है, उसके बाद वरुणोदसमुद्र है, उसके बाद क्षीरवरद्वीप है, उसके बाद क्षीरोदसमुद्र है उसके बाद घतवरद्वीप है, उसके बाद घृतोदसमुद्र है, उसके बाद इक्षुवरद्वीप है, उसके बाद इक्षुवरोदसमुद्र है, उसके बाद नन्दीश्वरद्वीप है, उसके बाद नन्दीश्वरोदसमुद्र है। उसके बाद अरुणवरद्वीप है, उसके बाद अरुणवरोदसमुद्र है । इसी प्रकार स्वयम्भूरमण पर्यन्त असंख्यात द्वीप और असंख्यात ही समुद्र अवस्थित हैं। भावार्थ-असंख्यातके असंख्यात भेद हो सकते हैं, अतः उनमें से कितने असंख्यात प्रमाण द्वीप समुद्र समझना ? तो ढाई सागरके जितने समय हों, उतने ही कुल द्वीप और समुद्र समझना चाहिये । इनमें सबसे पहला द्वीप जम्बूद्वीप है, और सबसे अन्तिम स्वयम्भूरमणसमुद्र है। उनमें से ही कुछका यहाँपर नामोल्लेख करके बताया है । इनके समान और भी जितने द्वीप • और समुद्र हैं, उन सबके वाचक शब्द शुभ हैं । ये सब रत्नप्रभा भूमिके ऊपर अवस्थित हैं। इन्हींके समूहको तिर्यग्लोक अथवा मध्यलोक कहते हैं। १--संख्याके भेदोंमें उपमामानका एक भेद है। इसका प्रमाण देखना हो, तो गोम्मटसार कर्मकाण्डकी भूमिकामें अथवा त्रिलोकसार आदिमें देखो । २-सबसे अंतिम स्वयंभूरमणसमुद्रका ही उल्लेख है, इससे कोई यह न समझे कि स्वयम्भूरमणसमुद्रके अनन्तर वातवलय ही हैं और कुछ नहीं। किंतु स्वयंभरमणसमुद्रके अनन्तर चार कोनोंमें पृथिवीका भाग भी है, उसके बाद वातवलय हैं । परन्तु उसका प्रमाण अल्प है, इसलिये उसकी अपेक्षा नहीं की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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