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________________ १६० रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीयोऽध्यायः है । क्योंकि गमन करनेमें कारण धर्म द्रव्य और स्थितिमें सहकारी कारण अधर्म द्रव्य है । जब ये दोनों कारण ही न रहेंगे, तो द्रव्योंके गमन और अवस्थानकी मर्यादा भी कैसे रह सकती है, कि अमुक स्थान तक ही द्रव्यों का गमन और अवस्थान हो सकता है आगे नहीं । अतएव जब कि लोककी मर्यादा सिद्ध है, तो उसका कारण भी प्रसिद्ध होना चाहिये, इसी लिये यहाँ पर उस मर्यादाका कारण धर्म और अधर्म द्रव्यको बताया है कि जहाँतक ये द्रव्य हैं, वहाँतक अन्य द्रव्योंका गमन और अवस्थान हो सकता है और इसीसे लोकसन्निवेशकी मर्यादा भी बनी हुई है । परन्तु लोकका सन्निवेश ऐसा क्यों है ? इसका उत्तर तो स्वभाव ही हो सकता । अनादि पारिणामिक स्वभाव ही ऐसा है, कि जिसके निमित्तसे लोकका आकार सुप्रतिष्ठेक अथवा वज्रके आकार में बना हुआ है । और उसीसे वह प्रदेशोंकी हानि वृद्धिरूप कहीं महान है और कहीं पतला है । क्योंकि यह पारिणामिक स्वभाव अनेक विचित्र शक्तियों को धारण करनेवाला है । क्षेत्र - विभागसे लोकके तीन भेद हैं- अधोलोक तिर्यग्लोक और ऊर्ध्वलोक यह बात ऊपर लिख चुके हैं । इनमेंसे अधोलोकका आकार आधी गोकन्धराके समान है । नीचे की तरफ विशाल - चौड़ी और ऊपर की तरफ क्रमसे संक्षिप्त । इसी बातको पहले भी बता चुके हैं, कि नीचे नीचे जो सात भूमियाँ अवस्थित हैं, उनका आकार नीचे नीचे की तरफको अधिकाधिक चौड़ा छत्रातिच्छत्रकी तरह होता गया है । अधोलोकका अथवा नाचेकी सातों भूमियोंका यह आकार है । तिर्यग्लोक - मध्यलोकका आकार झालर के समान है, और ऊर्ध्वलोककी आकृति मृदङ्गके समान है । यह तीनों विभागों का भिन्न भिन्न आकार है । सम्पूर्ण लोकका आकार वज्रके समान अथवा दोनों पैरोंको चौड़ाकर और कमरपर दोनों हाथोंको रखकर खड़े हुए पुरुष समान है । लोकके तीन भागों मेंसे अधोलोकका वर्णन इसी अध्याय के प्रारम्भमें किया जा चुका है । ऊर्ध्वलोकका वर्णन आगे चौथे अध्यायमें करेंगे । यहाँ क्रमानुसार तिर्यग्लोकका स्वरूप बताने के लिये संक्षेप में वर्णन करते हैं । - सूत्र – जम्बूद्वीपलवणादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ॥ ७ ॥ भाष्यम् -- जम्बूद्वीपा दयोद्वीपा लवणादयश्च समुद्राः शुभनामान इति । यावन्ति लोके. शुभानि नामानि तन्नामान इत्यर्थः । शुभान्येव वा नामान्येषामिति ते शुभनामानः । द्वीपाद १ -- एक यन्त्रविशेष होता है । २ - इन्द्रके हाथमें रहनेवाले उसके आयुधका नाम है । ३ - इन्हीं आचायाने लोकका आकार प्रशम० गा० २१०-२११ में इस प्रकार लिखा है - जीवाजीवौ द्रव्यमिति षड्विधं भवति लोकपुरुषोऽयम् । वैशाखस्थानस्थः पुरुष इव कटिस्थकरयुग्मः ॥ तत्राधोमुख मल्लकसंस्थानं वर्णयन्त्यधोलोकम् । स्थालमित्र तिर्यग्लोकम् ऊर्ध्वमथमलकसमुद्गम् ॥ ४-- जिनको विस्तारसे जानना हो, उन्हें द्वीपसागरप्रज्ञप्ति अथवा त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदि देखना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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