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सूत्र है।] समाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
१५९ है। क्योंकि पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे लोक सादि भी है । अतएव आगममें इसको कथंचित् अनादि और कथंचित् सादि ही बताया है । तथा ऐसा सन्निवेश होनेमें सिवाय स्वभावके और कोई कारण नहीं है।
भाष्यम्--अत्राह,-उक्तं भवता "लोकाकाशेऽवगाहा", " तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् " इति । तत्र लोकः कः कतिविधो वा किं संस्थितो वेति ? अत्रोच्यतेः
___ अर्थ-प्रश्न-आपने कहा है कि " लोकाकाशेऽवगाहैः " अर्थात् जीवानीवादिक जो द्रव्य हैं, उन सबका लोकाकाशमें ही अवगाह है, और यह भी कहा है कि " तदनन्तरमूज़ गच्छत्यालोकान्तात् ।” अर्थात् सम्पूर्ण कर्म और शरीरसे छूटनेपर यह जीव लोकके अन्ततक ऊर्ध्व-गमन करता है । इस तरह आपने लोक शब्दका कई बार उल्लेख किया है । अतएव इस विषयमें यह प्रश्न उपस्थित होता है, कि वह लोक क्या है ? और वह कितने प्रकारका है ? तथा किस प्रकारसे स्थित है ? उत्तर ।
भाष्यम्--पञ्चास्तिकाय समुदायो लोकः। ते चास्तिकायाः स्वतत्त्वतो विधानतो लक्षणतश्चोक्ता वक्ष्यन्ते च । स लोकःक्षेत्रविभागेन त्रिविधोऽधस्तिर्यगूज़ चेति। धर्माधर्मास्तिकायौ लोकव्यवस्थाहेतूं । तयोरवगाहविशेषाल्लोकानुभावनियमात सुप्रतिष्ठक वज्राकृतिलोकः। अधोलोको गोकन्धराधरार्धाकृतिः । उक्तं ह्येतत्--भूमयः सप्ताधोऽधः पृथुतराच्छनातिच्छ
संस्थिता इति । ता यथोक्ताः। तिर्यग्लोको झल्लाकृतिः, ऊर्ध्वलोको मृदङ्गाकृतिरिति । तत्र तिर्यग्लोकप्रसिद्धयर्थमिदमाकृतिमात्रमुच्यते ॥
अर्थ-पाँच अस्तिकायके समूहको लोक कहते हैं । जीव पुद्गल धर्म अधर्म और आकाश ये पाँच अस्तिकोय हैं । इनका कुछ वर्णन तो स्वतत्वकी अपेक्षासे तथा विधान और लक्षणकी अपेक्षासे पहले भी कर चुके हैं, बाकी और वर्णन आगे चलकर भी करेंगे ।
क्षेत्र-विभागकी अपेक्षा लोकके तीन भेद हैं-अधोलोक तिर्यग्लोक और ऊर्ध्वलोक । लोककी व्यवस्थाके कारण धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय हैं । इन दोनोंके अवगाह विशेषसे लोककी व्यवस्था बनी हुई है । क्योंकि जितने आकाशमें ये दोनों द्रव्य अवगाढ़रूपसे जिस तरह अवस्थित हैं, उसी प्रकारसे उस अवगाहनके अनुसार ही लोकका भी सन्निवेश बना हुआ है । अथवा लोकानुभावके अनुसार सुसिद्ध नियमोंसे ही उसका वैसा वैसा सन्निवेश बना हुआ है।
अर्थात- लोकसन्निवेशकी मर्यादा धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्यके निमित्तसे है । यदि ये दोनों द्रव्य न हों, तो चाहे जौनसा द्रव्य चाहे जहाँतक जा सकता और चाहे जहाँ ठहर सकता
१-अध्याय ५ सूत्र १२ । २--अध्याय १० सूत्र ५। ३--लोकहेतू इति च पाठः । ४--गोकन्धरा. ाकृतिः, गोकन्धराकृतिरित्यपि पाठान्तरे । ५--दिगम्बर सम्प्रदायमें कालको भी मुख्य द्रव्य माना है, और इसी लिये उन्होंने छह द्रव्योंके समूहको लोक माना है। ६--औपशमिकादि स्वतत्त्वोंके वर्णनमें, तथा संसारी मुक्त आदि भेद बताते समय और “ उपयोगो लक्षणम् " की व्याख्या । ७-पाँचवें अध्यायमें ।
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