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________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीयोऽध्यायः 1 साधारण नियमके अनुसार कोई भी मनुष्य नरकभूमियोंमें नहीं जा सकता, और न पाया जा सकता है । किन्तु समुद्घातकी अवस्था में मनुष्यका अस्तित्व वहाँपर कहा जा सकता है । समुद्घातगतसे मतलब केवलियोंका है । इसी प्रकार उपपात - नारकी और विक्रियालब्धि से युक्त जीव तथा साङ्गतिक - पूर्वजन्म के स्नेही मित्र आदि एवं नरकपाल - महान् अधार्मिक-उपर्युक्त असुरकुमार इतने जीव क्वचित् कदाचित् नरकभूमियों में सम्भव माने जा सकते हैं । १५८ प्रसङ्गानुसार लोकके विषय में कुछ उल्लेख करते हैं भाष्यम्-- यच्च वायव आपो धारयन्ति नच विश्वग्गच्छन्त्यापञ्च पृथिवीं धारयन्ति न च प्रस्पन्दन्ते पृथिव्यञ्चाप्सु विलयं न गच्छन्ति तत्तस्यानादिपारिणामिकस्य नित्य सन्ततेर्लोकविनिवेशस्य लोकस्थितिरेव हेतुर्भवति ॥ अर्थ -- वायुने जलको धारण कर रक्खा है, जिससे कि वह जल कहीं भी इधर उधर को गमन नहीं करता, जलने पृथिवीको धारण कर रक्खा है, जिससे वह जल भी स्पन्दन नहीं करता - किधर को भी बहता नहीं है, और न वह पृथिवी ही उस जलमें गलती है । यह लोकविनिवेशका अनादि पारिणामिक स्वभाव ही है, कि नित्यरूपसे इसकी ऐसी ही सन्तति चली आ रही है। ऐसा होनेमें भी लोककी स्थिति - अवस्थान ही कारण है और दूसरा कुछ नहीं । भावार्थ -- लोकका विनिवेश इस प्रकार है - पृथिवीको कठिनीभूत जलने धारण कर रक्खा है, जलको घनवातवलयने और घनवातवलयको तनुवातवलयने धारण कर रक्खा है । तनुवातवलय के लिये कोई आधार नहीं है, वह आत्मप्रतिष्ठ है- अपने ही आधार पर है, केवल आकाशमें ठहरा हुआ है । इस विषयमें यह बात विशेष है, कि इनकी रचना अथवा आधाराधेयभाव इस प्रकार से परस्पर में सन्निविष्ट है, कि जलके ऊपर हमेशा रहकर भी पृथिवी गलती नहीं है, और न वह जल ही इधर उधरको बहता है । इसी प्रकार जिस वायुने जलको धारण कर रक्खा है, वह वायु भी किधरको ही नहीं बहती, और न वह जल ही बहता है | यह लोकका सन्निवेश अनादि है । और यह अनादिता द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे 9-15 इमा णं भंते! स्यणप्पा पुढवी किं सासता असासता ? गोयमा ! सिय सासया सिय असासया । सेकेण्णं भंते ! एवं बुच्चइ ? गोयमा ? दव्वहयाए सासया, वणप्रज्जवोहं गन्धपज्जवेहिं, रसपज्जवेहिं, फासपज्जवेहिं, असासया, से एतेगं अगं गोयमा ! एवं वुञ्चइ ' । छाया - इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथ्वी किं शाश्वती अशाश्वती ? गौतम ! स्यात् शाश्वती स्यात् अशाश्वती । तत् केनार्थेन भदन्त एवमुच्यते ? गौतम ! द्रव्यार्थतया शाश्वती वर्णपर्यवैर्गन्धपर्यवे रसपर्यवैः स्पर्शपर्यवैरशाश्वती, तदेतेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते ॥ अर्थ - भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी शाश्वती - नित्य है अथवा अशाश्वती - अनित्य ? गौतम ! कथंचित् नित्य है, और कथंचित् अनित्य । हे भदन्त ! ऐसा किस अपेक्षा से कहा जाता है ? गौतम ! द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा नित्य है, और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा-वर्णपर्याय गन्धपर्याय रसपर्याय और स्पर्शपर्याय की अपेक्षा अनित्य है अतएव उसको नित्य और अनित्य दोनों प्रकारका कहा जाता है । 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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