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सूत्र ६ । ]
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
समझना चाहिये । अर्थात्-पक्षी आदिकी तीन भूमियों तक, सिंह आदिकी चार भूमियों तक, विषधर सर्प आदिकी पाँच भूमियोंमें, स्त्रियाँ आदि की छह भूमियोंमें, और मनुष्य तथा मत्स्य सातों ही भूमियोंमें जा सकते हैं । इसके सिवाय एक बात यह भी है, कि कोई भी देव अथवा नारकी मरकर नरक में जन्म - धारण नहीं कर सकता । यद्यपि उनके आरम्भ और परिग्रहकी विपुलता अति तीव्र पाई जाती है, फिर भी वह ऐसी नहीं हुआ करती, कि जो नरकगतिको निष्पन्न कर सके | इसी तरह कोई भी नारकी मरकर देवपर्याय में भी जन्म - धारण नहीं कर सकता । क्योंकि जो देवगतिको निष्पन्न कर सकते हैं, वे सराग संयमादिक हेतु नारक - जीवोंके नहीं रहा करते । नारक - जीव मरने के अनन्तर नरक से निकलकर तिर्यग्योनि अथवा मनुष्य गतिमें ही जन्म ग्रहण कर सकता है, अन्य में नहीं । नरक से निकलकर जो जीव मनुष्य पर्यायको धारण किया करते हैं, उनमें से कोई कोई जीव तीर्थंकर भी हो सकते हैं । परन्तु आदि की तीन भूमियोंसे निकले हुए ही जीव तीर्थकर हो सकते हैं । आदिकी चार भूमियों से निकले हुए जीव मनुष्य होकर मोक्षको भी जा सकते हैं। आदिकी पाँच भूमियों के जीव मरनेके अनन्तर मनुष्य होकर संयमको धारण कर सकते हैं। छह भूमियोंके निकले हुए मनुष्य होकर संयमासंयम - देशव्रतको धारण कर सकते हैं, और सातवीं भूमि तकके निकले हुए जीव सम्यदर्शनको धारण कर सकते हैं ।
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इस प्रकार नरक्की गति आगतिकी विशेषता बताई है । इसके सिवाय नरक पृथियोंके सन्निवेश - रचना आदिमें भी जो विशेषता है, वह इस प्रकार है कि
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भाष्यम् - द्वीपसमुद्रपर्वतहदतडागसरांसि ग्रामनगरपत्तनादयो विनिवेशा वादरो वनस्पतिकायो वृक्षतृणगुल्मादिः द्वीन्द्रियादयस्तिर्यग्योनिजा मनुष्या देवाश्चतुर्निकाया अपि न सन्ति, अन्यत्र समुद्घातोपपातविक्रिया साङ्गतिकनरकपालेभ्यः । उपपाततस्तु देवा रत्नप्रभायामेव सन्ति नान्यासु, गतिस्तृतीयां यावत् ॥
अर्थ - द्वीप समुद्र पर्वत बड़े बड़े हृद तड़ाग और छोटे छोटे सरोवर इन सबकी रचना नरक-भूमियोंमें नहीं है । इसी प्रकार वहाँपर बादर वनस्पतिकाय और वृक्ष तृण- घास आदि और गुल्म- छोटे छोटे पौधे द्वीन्द्रिय आदिक तिर्यग्जीव और मनुष्य तथा चारों ही निकायके देव भी नहीं रहा करते । किन्तु समुद्घात उपपात विक्रिया साङ्गतिक और नरकपालोंके लिये यह निषेध नहीं है । उपपातकी अपेक्षासे देव रत्नप्रभामें ही रहा करते हैं, और भूमियों में नहीं । देवोंकी गति तीसरी भूमितक हुआ करती है ।
भावार्थ - देवोंका उपपात - जन्म पहली भूमि रत्नप्रभामें ही होता है, अन्य भूमियों में नहीं, अतएव उपपातकी अपेक्षा से देव पहली भूमिमें ही रहा करते हैं, अन्य भूमियोंमें नहीं रहते । द्वीप समुद्र आदिका जो निषेध है, सो भी दूसरी आदि पृथिवियोंके विषयमें ही समझना न कि पहली पृथिवीके विषय में । क्योंकि रत्नप्रभाके ऊपर इन सबका सन्निवेश पाया जाता है ।
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