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________________ १९६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीयोऽध्यायः सागर, दूसरी शर्कराप्रभामें तीन सागर, तीसरी बालुकाप्रभामें सात सागर, चौथी पंकप्रभा में दश सागर, पाँचवीं धूमप्रभा में सत्रह सागर, छट्ठी तमः प्रभा में बाईस सागर, और सातवीं महातमःप्रभामें तेतीस सागर । इन नारकियोंकी आयुका जघन्य प्रमाण आगे चलकर लिखेंगे, कि “ नारकाणां च द्वितीयादिषु " और " दशवर्ष सहस्राणि प्रथमायाम् । " अर्थात् नारकियोंकी जघन्य आयुका प्रमाण पहले पहले नरकोंकी उत्कृष्ट आयुकी बराबर समझना चाहिये । पहले नरक की आयुका जो उत्कृष्ट प्रमाण है, वह दूसरे नरकमें जघन्य हो जाता है, और दूसरेका जो उत्कृष्ट है, वह तीसरेमें जघन्य हो जाता है । इसी तरह सातवें तक क्रमले समझ लेना चाहिये । यह क्रम दूसरेसे लेकर सातवें तक हो सकता है, अतएव पहले नरककी आयुका जघन्य प्रमाण दश हजार वर्ष मात्र है । इसका खुलासा आगे चलकर और भी करेंगे । यह नरक में उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी आयुका प्रमाण बताया, किंतु इतनी इतनी आयु लेकर उक्त नरकों में उत्पन्न होनेकी योग्यता रखनेवाले जीव कौन कौनसे हैं - अर्थात् किस किस जाति के जीव ज्यादः से ज्यादः किस किस नरक तक जा सकते हैं, यह बताना भी आवश्यक है, अतएव भाष्यकार इसको स्पष्ट करते हैं: W भाष्यम् -- तत्रास्त्रवैर्यथोक्तर्नारकसंवर्तनीयैः कर्मभिरसंज्ञिनः प्रथमायामुत्पद्यन्ते । सरीसृपा द्वयोरादितः प्रथमद्वितीययोः । एवं पक्षिणस्तिसृषु । सिंहाश्चतसृषु । उरगाः पञ्चसु । स्त्रियः षट्सु । मत्स्य मनुष्याः सप्तस्विति । न तु देवा नारका वा नरकेषूपपत्तिं प्राप्नुवन्ति । नहि तेषां बहारम्भपरिग्रहादयो नरकगतिनिर्वर्तका हेतवः सन्ति । नाप्युद्वर्त्य नारका देवेषूत्पद्यन्ते । न ह्येषां सरागसंयमादयो देवगतिनिर्वर्तका हेतवः सन्ति । उद्वर्तितास्तु तिर्यग्योनौ मनुष्येषु वोत्पद्यन्ते । मानुषत्वं प्राप्य केचित् तीर्थकरत्वमपि प्राप्नुयुरादितस्तिसृभ्यः निर्वाणं चतसृभ्यः संयमं पञ्चभ्यः संयमासंयमं षड्भ्यः सम्यग्दर्शनं सप्तभ्योऽपीति ॥ अर्थ — कर्मों के आनेके द्वारको आस्रव कहते हैं । कर्मभेद के अनुसार आस्रव भी भिन्न भिन्न ही हैं। क्योंकि जहाँ कार्यभेद है वहाँ कारणभेद भी होना ही चाहिये । किन किन आस्रवोंसे कौन कौनसे कर्मका बन्ध होता है, यह बात शास्त्रों में बताई है । उनमेंसे जिनके द्वारा नारकपर्यायको उत्पन्न करनेवाले कर्मका बन्ध हुआ करता है, ऐसे आगमोक्त आत्रों के निमित्तसे बन्धे हुए कर्मो के द्वारा जीव नरक-पर्यायको धारण किया करता है । किन्तु सत्र जीवों में एकसी योग्यता शक्ति नहीं हुआ करती । फलतः योग्यता की तरतमता के अनुसार जीवों के आस्रव परिणाम और उससे होनेवाले कर्मबन्ध भी तरतमरूपसे भिन्न भिन्न ही हुआ करते हैं । अतएव किस किस प्रकारके जीवमें कहाँ कहाँ तक - कौनसे कौनसे नरक तक लेजानेवाले कर्मको बाँधने की योग्यता है, यह जान लेना भी जरूरी है । वह इस प्रकार है कि जो असंज्ञी - मन रहित पंचेन्द्रिय जीव हैं, वे पहली पृथिवी तक ही जा सकते हैं। इसी प्रकार सरीसृप - सर्पविशेष पहली और दूसरी भूमि तक जा सकते हैं । इसी तरह आगे के लिये १ - अध्याय ४ सूत्र ४३-४४ की व्याख्यामें । २ -- तत्रास्रवेषु इति वा पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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