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________________ सूत्र ५-६ ।] समाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । तिकचरमदेहोत्तमपुरुषासंख्येववर्षायुषोऽनपवायुषः ” अर्थात् औपपातिकजन्मवाले–देव और नारकी चरमशरीरी उत्तम देहके धारक तथा असंख्यातवर्षकी आयुवाले जीवोंकी आयुका अपवर्तन नहीं हुआ करता । उन नारकियोंके लिये नरकोंमें कोई भी शरण नहीं होता, और न उनकी आयुका अपक्रम ही हो सकता है। अतएव आयपर्यन्त उनको उक्त दुःखोंको निरन्तर भोगना ही पड़ता है । अवश्यभोग्य-कर्मके वशमें पड़कर वे उक्त दुःखोंको भोगते हैं, और उस कर्मके ही निमित्तसे उनका शरीर यन्त्र पीडनादि दुःखों या उपघातोंसे विशीर्ण होकर भी-जलाया गया उपाटा गया विदीर्ण किया गया, छेदा गया और क्षत विक्षत किया गया, भी तत्काल फिर जैसेका तैसा हो जाता है। जैसे कि जलमें लकड़ीसे यदि लखीर की जाय, तो जल छिन्न होकर भी तत्काल ज्योंका त्यों मिल जाता है, उसी प्रकार नारकियोंका शरीर समझना चाहिये । वह भी छिन्न भिन्न होकर तत्काल अपने आप जुड़ जाता है। भाष्यम्-एवमेतानि त्रिविधानि दुःखानि नरकेषु नारकाणां भवन्तीति ॥ अर्थ-उपर लिखे अनुसार नरकोंमें जन्म ग्रहण करनेवाले नारकियोंको उपर्युक्त तीन प्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं। परस्परोदीरित, क्षेत्रस्वभावोत्पन्न और असुरोदीरित । भावार्थ-यहाँपर नारकियोंके तीन दुःख जो बताये हैं, सो सामान्य अपेक्षासे हैं। अतएव उसका अर्थ ऊपर लिखे अनुसार ही घटित कर लेना चाहिये, कि इन तीन प्रकारके दुःखोंमेंसे दो प्रकारके दुःख तो सभी नारकियोंके हुआ करते हैं, किन्तु असुरोदीरित दुःख पहली दूसरी और तीसरी पृथिवीके ही नारकियोंके हुआ करते हैं। उपर यह बात लिखी जा चुकी है, कि नारक अनपवायुष्क हैं, अतएव दुःखोंसे आक्रान्त होकर असमयमें मरनेकी इच्छा रखते हुए भी जबतक आयु पूर्ण न हो, मर नहीं सकते। इसपरसे नारकियोंके आयु-प्रमाणको जाननेकी इच्छा हो सकती है । अतएव ग्रन्थकार मातों ही नरकोंके नारकियोंकी आयुका उत्कृष्ट प्रमाण बतानेके लिये सूत्र कहते हैं: सूत्रम्-तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाः सत्त्वानां परास्थितिः ॥ ६॥ भाष्यम्--तेषु नरकेषु नारकाणां पराः स्थितयो भवन्ति । तद्यथा-रत्नप्रभायामेकं 'सागरोपमम् । एवं त्रिसागरोपमा सप्तसागरोपमा दशसागरोपमा सप्तदशसागरोपमा द्वाविंशतिसागरोपमा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा। जघन्या तु पुरस्ताद्वक्ष्यते।-"नारकाणां च द्वितीयादिषु । "--" दशवर्षसहस्राणि प्रथमायामिति ।" अर्थ-- उक्त सात नरकोंमें रहनेवाले अथवा जन्म-धारण करनेवाले नारकियोंकी आयुका उत्कृष्ट प्रमाण इस प्रकार समझना चाहिये । पहली रत्नप्रभा भूमिमें एक १-दिगम्बर सम्प्रदायमें छह प्रकारके प्रसिद्ध हैं। २-अध्याय-४ सूत्र ४३-४४ की व्याख्यामें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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