________________
१५४
रायचन्द्रनैनशास्त्रमालायाम
[ तृतीयोऽध्यायः
1
।
रहित भाव - दोषोंके कारण ही किया है । तीसरी बात यह है, कि ये विचारशील नहीं होते, इनको इतना विवेक नहीं होता, कि यह अशुभ कार्य है, इसमें सहयोग देना या इसमें प्रसन्नता प्रकट करना अथवा इनको देखकर हर्षित होना भी अशुभ ही है । वे इस बात पर कभी विचार ही नहीं करते । चौथी बात यह है, कि जिस पुण्य - कर्मका इन्होंने पर्वजन्म में बन्ध किया है, वह अकुशलतानुबन्धी है । वह पुण्यरूपमें अपना फल नहीं दिया करता । उसके उदयसे ऐसा ही फल प्राप्त होता है, कि जो जीवको अशुभताकी ही तरफ ले जाय । पाँचवीं बात यह है, कि जिसके प्रसादसे इन्होंने आसुरीगतिको प्राप्त किया है, वह भाव - दोषों का अनुकर्षण करनेवाला बालतप था, जिसमें कि भावदोषोंका संभव रहा करता है, ऐसा मिथ्यादृष्टियोंका तप कुशलानुबन्धी नहीं हो सकता । उससे ऐसे विशिष्ट पुण्यका बन्ध नहीं हो सकता, जोकि उदयको प्राप्त होकर जीवको अशुभ क्रियाओंसे निवृत्त और शुभ क्रियाओंकी तरफ प्रवृत्त करानेवाले शुभ- मार्ग में लगा दे। ये ही सब कारण हैं, कि जिनके फलस्वरूप प्रीतिके लिये अन्य मनोज्ञ विषय सामग्रीके रहते हुए भी अशुभ विषय ही प्रीतिके कारण हुआ करते हैं ।
भावार्थ -- उपर्युक्त पंद्रह प्रकारके असुरकुमार नारकियोंको दुःखोंकी उदीरणा क्यों कराते हैं ? इसके उत्तरमें पाँच कारणोंका ऊपर निर्देश किया गया है । इससे यह बात मालूम हो जाती है, कि उनका पूर्ववद्ध कर्म और तदनुसार उनका स्वभाव ही ऐसा होता है, कि जिससे दूसरोंको लड़ता हुआ या मरता पिटता दुःखी होता हुआ देखकर उन्हें आनन्द आता है । यह बात असुरोदीरित दुःखके सम्बन्धको लेकर कही गई है। किंतु नारकियों के उपर्युक्त दुःखोंकी भयंकरतापर विचार करनेसे यह प्रश्न उपस्थित होता है, कि इतने अधिक दुःखों को वे सहन कैसे कर सकते हैं ? यन्त्रपीडनादि सरीखे दुःखोंसे उनका शीर विशीर्ण क्यों नहीं हो जाता ? और यदि हो जाता है, तो शरीरके विशीर्ण होनेपर उनकी मृत्यु क्यों नहीं हो जाती ? इत्यादि । इसका उत्तर स्पष्ट करनेके लिये आगे भाष्यकार कहते हैं
भाष्यम् -- इत्येवमप्रीतिकरं निरन्तरं सुतीनं दुःखमनुभवतां मरणमेव काङ्क्षतां तेषां न विपत्तिरकाले विद्यते कर्मभिर्धारितायुषाम् । उक्तं हि " औपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषासंख्येवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः " इति । नैव तत्र शरणं विद्यते नाप्यपक्रमणम् । ततः कर्मवशादेव दग्धपाटितभिन्नच्छिन्नक्षतानि च तेषां सद्य एव संरोहन्ति शरीराणि दण्डराजिरिवाम्भसि इति ॥
1
अर्थ - ऊपर लिखे अनुसार अनेक प्रकारके अति तीव्र अमनोज्ञ दुःखों को निरंतर भोगते भी उन नारकियोंका असमयमें मरण नहीं हुआ करता । वे इन दुःखोंसे घबड़ाकर हुए मरना चाहते हैं, फिर भी उन्होंने जो आयुकर्म बाँधा है, उसकी स्थिति जबतक पूर्ण नहीं होती, तबतक उनका मरण नहीं हो सकता, यह बात पहले भी कह चुके हैं, कि - " औपपा
१- अध्याय २ सूत्र ५३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org