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सूत्र ५ । ]
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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भाष्यम् – स्यादेतत्किमर्थं त एवं कुर्वन्तीति; अत्रोच्यतेः - पापकर्माभिरतय इत्युक्तम् । तद्यथा--गोवृषभमहिषवराहमेषकुक्कुटवार्तकालावकान्मुष्टिमल्लांश्च युध्यमानान् परस्परं चाभिनतः पश्यतां रागद्वेषाभिभूतानामकुशलानुबन्धिपुण्यानां नराणां परा प्रीतिरुत्पद्यते । तथा तेषामसुराणां नारकांस्तथा तानि कारयतामन्योन्यं नतश्च पश्यतां परा प्रीतिरुत्पद्यते । ते हि दुष्टकन्दर्पास्तथाभूतान् दृष्ट्वाट्टहासं मुञ्चन्ति चेलोत्क्षेपान्क्ष्वेडितास्फोटितावल्लिते तलतालनिपातनांश्च कुर्वन्ति महतश्च सिंहनादान्नदन्ति । तच्च तेषां सत्यपि देवत्वे सत्सु च कामिकेष्वन्येषु प्रीतिकारणेषु मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्य तीव्रकषायोपहतस्यानालोचितभावदोषस्याप्रत्यवमर्षस्याकुशलानुबन्धि पुण्यकर्मणो बालतपसश्च भावदोषानुकर्षिणः फलं यत्सत्स्वप्यन्येषु प्रीतिहेतुष्वशुभा एव प्रीतिहेतवः समुत्पद्यन्ते ॥
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अर्थ - असुरोदीरित दुःख के विषयमें यह प्रश्न हो सकता है, कि वे ऐसा क्यों करते हैं ? नारकियोंके भिड़ाने में और उनके दुःखकी उदीरणा कराने में असुरकुमार देवोंका कौनसा प्रयोजन सिद्ध होता है, कि जिसके लिये वे अपने स्थानको छोड़कर नरक - भूमियोंमें जाते हैं, और वहाँ जाकर उक्त प्रकारके कार्य करते हैं ? उत्तर - यह बात ऊपर ही कही जा चुकी है, कि इन देवोंकी रुचि पापकर्ममें ही हुआ करती है । हाँ ! यह रुचि किस प्रकारसे होती है, सो बताते हैं:—लोकमें देखा जाता है, कि गौ बैल भैंसा शूकर मेंढ़ा मुर्गा बतक तीतर आदि जानवरोंको अथवा मुष्टिमल्ल-आपसमें घूँसा मार मारकर लड़नेवाले योद्धाओंको परस्परमें लड़ता हुआ औ एकके ऊपर दूसरेको प्रहार करता हुआ देखकर, जो राग द्वेषके वशीभूत हैं, और अकुशलानुबंधि पुण्यके धारण करनेवाले हैं, उन मनुष्यों को बड़ा आनन्द आता है । इसी प्रकार असुरकुमारों के विषयमें समझना चाहिये । उनको भी नारकियोंको वैसा करते हुए देखकर अथवा नारकियों से वैसा कराने में और आपस में उनको लड़ता तथा प्रहार करता हुआ देखकर अत्यन्त खुशी होती है । संक्लेशरूप परिणामोंको अथवा दुष्ट भावोंको धारण करनेवाले वे असुरकुमार उन नारकियों को वैसा करता हुआ देखकर खुशीके मारे अट्टहास करते हैं, कपड़े उड़ाते हैं - कपड़े हट जाने से नग्न हो जाते हैं, लोटपोट हो जाते हैं, और तालियाँ बजाते हैं, तथा बड़े जोर जोरसे सिंहनाद भी किया करते हैं ।
ये असुरकुमार यद्यपि गतिकी अपेक्षा देव हैं, और इसीलिये इनके अन्य देवों के समान मनोज्ञ विषय भी मौजूद हैं। जैसे कि दूसरे देवोंके मनको हरण करनेवाले भोग और उपभोग रहा करते हैं, वैसे ही इनके भी रहते हैं । परन्तु फिर भी इनको उन विषयों में इतनी अभिरुचि नहीं हुआ करती, जितनी कि उक्त अशुभ कार्योंको देखकर हुआ करती है । इसके अनेक कारण हैं - सबसे पहली बात तो यह है, कि इनके माया मिथ्या और निदान ये तीनों ही शल्य पाये जाते हैं । तथा शल्योंके साथ साथ तीव्र कषायका उदय भी रहा करता है । दूसरी बात यह है, कि इनके जो भाव में दोष लगते हैं, उनकी आलोचना नहीं करते, और न इन्होंने पूर्वजन्म में वैसा किया है । पहले भवमें जो आसुरी - गतिका बन्ध किया है, वह आलोचना
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