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________________ १५२ रायचन्द्रनैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीयोऽध्यायः और जिनकी पापकर्मके करनेमें अत्यंत अभिरुचि रही है, ऐसे जीव मरकर असुरगतिको प्राप्त होते हैं। ये मिथ्यादृष्टि और परम अधार्मिक हुआ करते हैं। इनके पंद्रह भेद हैं-अम्ब अम्बरीष श्याम शबल रुद्र उपरुद्र काल महाकाल असि असिपत्रवन कुम्भी वालुका वैतरणी खरस्वर और महाघोष । कर्म क्लेशसे उत्पन्न होनेवाले इन अम्बाम्बरीषादिक देवोंका स्वभाव भी संक्लेशरूप ही हुआ करता है । दूसरोंको दुःखी देखकर प्रसन्न हुआ करते हैं, और इसी लिये उन नारकियोंके भी वेदनाओंकी अच्छी तरहसे उदीरणा करते और कराया करते हैं-आपसमें उनको भिड़ाते हैं, और दुःखोंकी याद दिलाया करते हैं। इनकी उदीरणा करानेकी उपपत्ति नाना प्रकारकी हुआ करती हैं । यथा-तपा हुआ लोहेका रस पिलाना, संतप्त लोहेके स्तम्भोंसे आलिङ्गन कराना, मायामय-वैक्रियिक शाल्मली वृक्षके ऊपर चढाना, लोहमय घनोंकी चोटसे कूटना, वसूलेसे छीलना, रन्दा फेरकर क्षत करना, क्षार जल अथवा गरम तैलसे अभिषेक करना, अथवा उन घावोंके ऊपर क्षारजल या गरम तैल छिड़कना, लोहेके कुम्भमें डालकर पकाना, भाड़में या बालू आदिमें भूजना, कोल्हू आदिमें पेलना, लोहेके शूल अथवा शलाका शरीरमें छेद देना, और उन शूलादिके द्वारा शरीरका भेदन करना, आरोंसे चीरना, जलती हुई अग्निमें अथवा अंगारोंमें जलाना, सवारीमें जोतकर चलना-हाकना तीक्ष्ण नुकीली घासके ऊपरसे घसीटना, इसी प्रकार सिंह व्याघ्र गेडा कुत्ता शृगाल भेड़िया कोक मार्जार नकुल सर्प कौआ तथा भेरुण्ड पक्षी गीध काक उल्लू बाज आदि हिंस्र जीवोंके द्वारा भक्षण कराना, एवं संतप्त बालमें चलाना, जिनके पत्ते तलवारके समान तीक्ष्ण है, ऐसे वक्षोंके वनोंमें प्रवेश कराना, वैतरणी-खन पीव मल मूत्रादिकी नदीमें तैराना, और उन नारकियोंको आपसमें लडाना, इत्यादि अनेक प्रकारके उपायोंके द्वारा ये असुरकुमार तीसरी पृथिवीतकके नारकियोंको उदीरणा करके दुःखोंको भुगाया करते हैं । __ भावार्थ-तीसरी भूमितकके नारकियोंको परस्परोदीरित दुःखके सिवाय असुरोदीरित दुःख भी भोगना पड़ता है । चौथी आदि भूमिके नारकियोंको वह नहीं भोगना पड़ता, इसलिये वहाँपर पहली तीन भूमियोंके दुःखोंसे कुछ कम दुःख हो गया, ऐसा नहीं समझना चाहिये । वहाँपर अन्य दुःख इतने अधिक हैं, कि जिनके सामने उपरकी पृथिवियोंके दुःख अति अल्प मालूम पड़ते हैं। चौथी आदि भूमिमें असुरोदीरित दुःख क्यों नहीं है? तो इसका कारण यही है, कि वे तीसरी पृथिवीसे आगे गमन नहीं कर सकते-आगे जानेकी उनमें सामर्थ्य नहीं है । इसके सिवाय एक बात यह भी ध्यानमें रख लेनी चाहिये, कि सभी असुरकुमार वहाँ जाकर दुःखोंकी उदीरणा नहीं कराया करते, किन्तु जिनके मानसिक परिणाम संक्लेशयुक्त रहा करते हैं, ऐसे उपयुक्त अंब अंबरीष आदि पंद्रह जातिके ही असरकुमार वैसा किया करते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं ? इस बातको आगे स्पष्ट करते हैं: १ भवनवासी देवोंका एक भेद है, जैसा कि आगे चलकर बताया जायगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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