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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ तृतीयोऽध्यायः
नारकी प्रतिक्षण भूखकी बाधा से पीड़ित बने रहते हैं । उनकी भूख इतनी तीव्र हुआ करती है, कि वे सबके सब पुद्गल द्रव्यको भी खा जाँय तो भी क्षुधा शांत न हो। इसी प्रकार निरन्तर बढ़ती हुई तीव्र पिपासा के द्वारा जिनका कण्ठ ओष्ठ तालु और जिह्वा सत्र सूख गये हैं, ऐसे वे नारकी अपनी उस तीव्र घ्यासकी वेदनाके वश इतने व्यथित होते हैं, कि यदि उन्हें मिल जाँय, तो सबके सब समुद्रों को भी पी जॉय, और फिर भी तृप्ति न हो । उल्टी उनकी क्षुधा और पिपासा बढ़ती ही जाय । इसी तरह और भी क्षेत्ररूप कारणों को समझ लेना चाहिये, जिनसे कि अशुभ परिणमन-भूमिकी रूक्षता दुर्गन्धि आदि हुआ करते हैं ।
क्षेत्रकृत दुःखको दिखाकर अब सूत्रके अर्थको स्पष्ट करते है
भाष्यम् – परस्परोदीरितानि च । अपि चोक्तम् भवप्रत्ययोऽवधिर्नारिकदेवानामिति । तन्नारकेष्ववधिज्ञानमशुभभवहेतुकं मिथ्यादर्शनयोगाच्च विभङ्गज्ञानं भवति । भावदोषोपघातात्तु तेषां दुःखकारणमेव भवति । तेन हि ते सर्वतः तिर्यगूर्ध्वमधश्च दूरत एवाजत्रं दुःखहेतूपश्यन्ति । यथा च काकोलूकमहिनकुलं चोत्पत्त्यैव बद्धवैरं तथा परस्परं प्रति नारकाः । यथा वाsपूर्वान् शुनो दृष्ट्वा श्वानो निर्दयं क्रुध्यन्त्यन्योन्यं प्रहरन्ति च तथा तेषां नारकाणामवधिविषयेण दूरत एवान्योन्यमालोक्य कक्रोधस्तीव्रानुशयो जायते दुरन्तो भवहेतुकः । ततः प्रागेव दुःख समुद्घातार्त्ताः क्रोधाग्न्यादीपितमनसोऽतर्किता इव श्वानः समुद्धता वैक्रियं भयानकं रूपमास्थाय तत्रैव पृथिवीपरिणामजानि क्षेत्रानुभावजनितानि चायः शूलशिलामुसलमुद्गरकुंततोमरा सिपट्टिशशक्तच योघनखड्गयष्टिपरशुभिण्डिपाला दीन्यायुधान्यादाय करचरणदशनैश्चान्योन्यमभिघ्नन्ति । ततः परस्पराभिहता विकृताङ्गा निस्तनन्तो गाढवेदनाः शूनाघातनप्रविष्टा इव महिषसूकरोरभ्राः स्फुरन्तो रुधिरकर्दमे चेष्टन्ते । इत्येवमादीनि परस्परोदीरितानिनरकेषु नारकाणां दुःखानि भवन्तीति ॥
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अर्थ — नारक जीव परस्पर में उदीरित दुःखोंको भोगते हैं, यह बात ऊपर कही है । परन्तु इसका कारण क्या है, सो बताते हैं । पहले यह बात बता चुके हैं कि – “ भवप्रत्ययो ऽवधिर्नारकदेवानाम् । " अर्थात् देव और नारकियोंके भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है । किन्तु इनमें से नारकियोंके जो अवधिज्ञान होता है, वह अशुभ भवहेतुक ही हुआ करता है । क्योंकि नारक भव अशुभ है और उसी निमित्तसे उसकी उत्पत्ति हुआ करती है । तथा मिथ्यादर्शनका साहचर्य रहनेसे उसको अवधिज्ञान न कहकर विभङ्ग कहते हैं । एवं भावरूप दोषोंके उपघातसे वह विभङ्ग उन नारकियोंके लिये दुःखकाही कारण हुआ करता है । इस विभंगके द्वारा वे नारकी सब तरफ तिर्यक् - चारों दिशाओंमें और ऊर्ध्व तथा अधः दूरसे ही निरंतर दुःखोंके कारणोंको ही देखा करते हैं । जिस प्रकार काक और उलूक- उल्लूमें जन्म से ही बैर हुआ करता है, अथवा जिस तरह सर्प और न्योला जातिस्वभावसे ही आपसमें बद्धबैर हुआ करते हैं, उसी प्रकार नारकियों को भी आपसर्वे समझना चाहिये । यद्वा जिस प्रकार कुत्ते दूसरे नये कुत्तों को देखकर निर्दयता के साथ
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