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सूत्र ४ ।]
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । धारण करके क्रोध करते हैं, और एक दूसरेको मारण ताड़न अभिघातादिके द्वारा दुःख दिया करते हैं। इसके सिवाय उस क्षेत्रका स्वभाव ही ऐसा है, कि वहाँपर जो पुद्गलका परिणमन होता है, वह अशुभ ही होता हैं, सो उसके द्वारा भी उन नारकियोंको दुःख हुआ करता है।
भावार्थ-नरकोंमें दो प्रकारके जीव पाये जाते हैं, एक मिथ्यादृष्टि जिनकी कि संख्या बहुत अधिक है, और दूसरे सम्यगदृष्टि जिनकी कि संख्या अत्यल्प है। मिथ्यादृष्टियोंके भवप्रत्ययविभंग पाया जाता है, और सम्यग्दृष्टियोंके अवधिज्ञान रहा करता है । विभंगके निमितसे विपरीत भाव उत्पन्न हुआ करते हैं । अतएव इस प्रकारके नारकी एक दूसरेपर क्रोधादि भाव धारण करके प्रहारादि करनेके लिये प्रयत्न किया करते हैं । जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे दूसरेपर क्रोध नहीं करते, और न दूसरोंके लिये दुःखोंकी उदीरणा ही करते हैं । किंतु वे दूसरोंके उदीरित दुःखोंको सहते हुए अपनी आयुकी पूर्णताकी अपेक्षा किया करते हैं, और अपने पूर्वजन्मके आचरणका विचार भी किया करते हैं।
इस परस्परकी उदीरणाजन्य दुःखके सिवाय उनके क्षेत्रस्वभावकृत भी दुःख होता है, इस बातको बतानेके लिये ही कहा है, कि वहाँके क्षेत्रका स्वभाव ही ऐसा है, कि वहाँपर पुद्गल द्रव्यका जो कुछ भी परिणमन होता है, वह अशुभ ही होता है। यद्यपि उपपातादिकृत सुख भी वहाँपर माना है, किन्तु बहुतर दुःखके सामने वह इतना अल्प है, कि उसको नहीं सरीखा ही कहना चाहिये । दुःखकी विपुलताको देखकर यही कहना पडता है, कि नरकोंमें सुख रंचमात्र भी नहीं है । अतएव वे नारकी क्षेत्र-स्वभावकृत दुःखको भी भोगते हैं। वह दुःख किस प्रकारका है, सो आगे बताते हैं:
भाष्यम्-तत्र क्षेत्रस्वभावजनितपुद्गलपरिणामः शीतोष्णक्षुत्पिपासादिः । शीतोष्णे व्याख्याते, क्षुत्पिपासे वक्ष्यामः । अनुपरतशुष्कन्धनोपादानेनेवाग्निना तीक्ष्णेन प्रततेने क्षुदाग्निना दंदह्यमानशरीरा अनुसमयमाहरयन्ति ते सर्वे पुद्गलानप्यास्तीव्रया च नित्यानुषक्तया पिपासया शुष्ककण्ठोष्ठतालुजिह्वाः सर्वोदधीनपि पिबेयुर्न च तृप्तिं समाप्नुयुर्वर्धेयातामेव चैषां क्षुत्तृष्णे इत्येवमादीनि क्षेत्रप्रत्ययानि ॥
____ अर्थ-उक्त नरकोंमें क्षेत्र-स्वभावसे जो पुद्गलका परिणमन उत्पन्न होता है, वह शीत , उष्णरूप अथवा क्षुधा पिपासा आदि रूप ही समझना चाहिये । इनमें से शीत और उष्ण परिणमनका स्वरूप ऊपर बता चुके हैं, क्षुधा और पिपासाका स्वरूप यहाँपर बताते हैं:- .
निरन्तर–व्यवधान रहित शुष्क ईधन जिसमें पड़ रहा हो, ऐसी अग्निके समान अति महान् और प्रचण्ड क्षुधारूप अग्निसे जिनका शरीर अतिशयरूपसे जल रहा है, ऐसे वे
१-प्रततक्षुदग्गिना इति च पाठः, क्वचित्तु तीक्ष्णोदराग्निना इति पाठः । २-सर्वपुद्गलानिति वा पाठः । ३-समाप्नुयुस्ते इत्यपि पाठः ।
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