SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र ३ ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १४७ मशुभं भवति ततोऽनन्तगुणं प्रकृष्टं कष्टं शीतवेदनेषु नरकेषु भवति। यदि किलोष्णवेदनानरकादुक्षिप्य नारकः सुमहत्यङ्गारराशावुद्दीप्ते प्रक्षिप्येत स किल सुशीतां मृदुमारुतं शीतला छायामिव प्राप्तः सुखमनुपमं विन्द्यान्निद्रां चोपलभेत एवं कष्टतरं नारकमुष्णमाचक्षते। तथा किल यदि शीतवेदनान्नरकादुत्क्षिप्य नारकः कश्चिदाकाशे माघमासे निशिप्रवाते महति तुषारराशौ प्रक्षिप्येत स दन्तशब्दोत्तमकरप्रकम्पयासकरेऽपि तत्र सुखं विन्द्यादनुपमां निदां चोपलभेत एवं कष्टतरं नारकं शीतदुःखमाचक्षत इति।। अर्थ-नारकियोंकी अशुभतर वेदना ।-यह वेदना भी उक्त नरकोंमें जन्मधारण करनेवाले नारकियोंकी उत्तरोत्तर अधिकाधिक ही होती गई है । यह अशुभ वेदना पहलेसे दूसरेमें और दूसरेसे तीसरेमें तथा इसी तरह आगेके भी नरकोंमें अधिक अधिक ही बढती गई है। यह वेदना दो प्रकारकी है, एक उष्ण दूसरी शीत । तीसरी भूमि तक उष्ण वेदना ही है, और वह भी क्रमसे तीव्रतर और तीव्रतम होती गई है । चौथी पृथिवीमें उष्ण और शीत दोनों ही प्रकारकी वेदना है । पाँचवीं भूमिमें शीत और उष्ण वेदना है । अन्तकी दो भूमियों-छट्टी और सातवीं में क्रमसे शीत और शीततर वेदना है । अर्थात्-तीसरी भमितक सब नारकी उष्ण वेदनावाले ही हैं, किंतु चौथी भूमिमें उष्ण वेदनावाले अधिक हैं, और थोडेसे शीत वेदनावाले भी हैं। पाँचवीं पृथिवीमें शीत वेदनावाले अधिक और उष्ण वेदनावाले अल्प हैं । तथा अन्तकी दोनों भूमियोंमें शीत वेदनावाले ही हैं। इन भूमियोंमें जो उष्ण वेदना और शीत वेदना होती है, उसका स्वरूप और प्रमाण बतानेके लिये कल्पना करके समझाते हैं। प्रथम शरत्कालमें अथवा अन्तके निदाघ-ग्रीष्म कालमें जिसका कि शरीर पित्त व्याधिके प्रकोपसे आक्रान्त हो गया हो, और चारों तरफ जलती हुई अग्नि राशिसे घिरा हुआ हो, एवं मेघ शून्य आकाशमें मध्यान्हके समय जब कि वायुका चलना बिलकुल बंद हो, कड़ी धूपसे संतप्त हो रहा हो, उस जीवको उष्णताजन्य जैसा कुछ दुःख हो सकता है, उससे भी अनन्तगुणा अधिक कष्ट उष्ण वेदनावाले नारकियोंको हुआ करता है । इसी प्रकार शीत वेदनाके विषयमें समझ लेना चाहिये । —पौष अथवा माघ महीनमें जिसके कि शरीरसे तुषार-बर्फ चारों तरफ लिपटा हुआ हो, रात्रिके समय जब कि प्रति समय बढ़ती हुई ऐसी ठंडी हवा चल रही हो, जिसके कि लगते ही हृदय हाथ पैर नीचे ऊपरके ओष्ठ और दाँत सब कँपने लगते हैं, .एवं अग्नि मकान और वस्त्रसे रहित मनुष्यके जैसा कुछ शीत वेदना सम्बन्धी अशुभ दुःख हो सकता है, उससे भी अनन्तगुणा अधिक कष्ट शीत वेदनावाले नारकियोंको हुआ करता है। यदि कदाचित उष्ण वेदनावाले नरकसे किसी नारकीको उठा कर अच्छी तरह जलती हुई, जिसकी कि ज्वालाएं चारों तरफको निकल रही हों, ऐसी महान् अङ्गार-राशिमें पटक दिया जाय, तो वह नारकी ऐसा समझेगा कि, मैं एक शीतल छायामें आकर प्राप्त हो गया हूँ , अग्निकी ज्वालाओंको वह अत्यन्त ठंडी हवाके मंद मंद झकोरे समझेगा, और ऐसे अनुपम सुखका अनुभव करने लगेगा, कि उसे उसीमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy