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________________ १४६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीयोऽध्यायः बीभत्स-ग्लानिकर हुआ करती है। नारकिमात्रके शरीर क्रूर करुणापूर्ण बीभत्स और देखनेमें भयानक हुआ करते हैं । तथा अतिशयित दुःखोंके आयतन एवं अशुचि-अपवित्र होते हैं, और उनकी यह अशुभता नीचे नीचेके नरकोंमें उत्तरोत्तर अधिकाधिक ही होती गई है। नारकियोंके शरीरकी उँचाई इस प्रकार है-पहली रत्नप्रभामें नारकियोंके शरीरकी उँचाई सात धनुर्षे तीन हाथ और छह अंगुल । उससे आगेकी शर्कराप्रभा आदिक पृथिवियोंमें क्रमसे उसका प्रमाण दूना दूना समझना चाहिये । इसके उत्कृष्ट और जघन्यका प्रमाण स्थितिकी तरह समझ लेना चाहिये । अर्थात् जिस प्रकार स्थितिके विषयमें यह कहा गया है, कि पहली पहली पृथिवीके नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थिति नीचे नीचेके नारकियोंकी जघन्य स्थिति हो जाती है, उसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये । इस नियमके अनुसार पहले नरकके जीवोंके शरीरकी उत्कृष्ट अवगाहनाका जो प्रमाण बताया है, वही दुसरे नरकके जीवोंके शरीरकी अवगाहनाका जघन्य प्रमाण होता है । इसी प्रकार आगे आगेका भी प्रमाण समझ लेना चाहिये । यहाँपर यह जाननेकी इच्छा हो सकती है, कि जब पहले पहले प्रतरों या भूमियोंके नारकियोंका उत्कृष्ट अवगाहन आगे आगे जघन्य हो जाता है, तो पहली भूमिके नारकियोंकी जघन्य अवगाहनाका प्रमाण क्या है ? उत्तर-वह प्रमाण अङ्गलके असंख्यातवें भाग समझना चाहिये । उत्तरवैकियका जघन्य प्रमाण अङ्गालके संख्यातवें भाग है । तथा उत्कृष्ट प्रमाण १५ धनुष ३॥ अरत्नि है । यह भी दना दनाके क्रमसे सातवें नरकमें एक हजार धनुष हो जाता है। भाष्यम्-अशुभतरवदना:-अशुभतराश्च वेदना भवन्ति नरकेष्वधोऽधः । तद्यथाउष्णवेदनास्तीजास्तीव्रतरास्तीव्रतमाश्चातृतीयाः । उष्णशीते चतुर्थ्याम् शीतोष्णे पञ्चम्याम् । परयोशीताः शीततराश्चेति । तद्यथा- । प्रथमशरत्काले चरमनिदाघे वा पित्तव्याधिप्रकोपाभिभूतशरीरस्य सर्वतो दीप्ताग्निराशिपरिवृतस्य व्यभ्रे नभसिमध्यान्हे निघातेऽतिरस्कृतातपस्य यागुष्णजं दुःखं भवति ततोऽनन्तगुणं प्रकृष्टं कष्टमुष्णवेदनेषु नरकेषु भवति । पौषमाघयोश्च तुषारलिप्तगात्रस्य रात्रौ हृदयकरचरणाधरोष्ठदश नायासिनि प्रतिसमयप्रवृद्धे शीतमारुते निरग्न्याश्रय प्रावरणस्य यादृक्शीतसमुद्भवं दुःख . १-नारकियों के शरीर दो प्रकारके माने हैं-एक भवधारक दूसरा उत्तरवैक्रिय । जो मूलमें धारण किया जाय, उसको भवधारक और जो विक्रियासे उत्पन्न हो, उसको उत्तरवैक्रिय कहते हैं । यहाँपर भवधारककी उँचाई बताई है। २--यह उँचाई उत्सेधागुलकी अपेक्षासे है । आठ जौका १ अंगुल, २४ अंगुलका १ हाथ, और ४ हाथका १ धनुष होता है । ३--इस विषयमें टीकाकारने लिखा है कि--" उक्तमिदमतिदेशता भाष्यकारेणास्ति चैतत् , न तु मया क्वचिदागमे दृष्टं प्रतरादिभेदेन नारकाणां शरीरावगाहनमिति ।” परन्तु इसपर अन्य विद्वानोंका लिखना है कि-आगमशब्देनात्र मूलागमः, तेन वृत्त्यादिषु एतत्सत्त्वेऽपि न क्षतिः । उत्तरं तु पृथिवीवत् द्विगुणमिति स्पष्टमेव । ४-एष पाठः क्वचिन्नास्ति । ५-प्रथमायामुष्णवेदनाः द्वितीयायामुष्णवेदनाश्च तीव्रतरास्तीव्रतमाश्चातृतीयायामिति पाठोऽन्यत्र । -शांततराः शीततमाश्चेति एवं वा पाठः । ७-उष्णमिति च पाठः । 6-भिन्न इति वा पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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