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________________ सूत्र २ - ३ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १ ४३ सूत्र - नित्याशुभतरलेश्या परिणामदेहवेदनाविक्रियाः ॥ ३॥ भाष्यम् – ते नरका भूमिक्रमेणाधोऽधो निर्माणतोऽशुभतराः । अशुभाः रत्नप्रभायां ततोऽशुभतराः शर्कराप्रभायां ततोऽप्यशुभतरा वालुकाप्रभायाम् । इत्येवमासप्तम्याः । नित्यग्रहणं गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गकर्मनियमादेते लेश्यादयो भावा नरकगतौ नरकपञ्चेन्द्रियजातौ च नैरन्तर्येणाभवक्षयोद्वर्तनाद्भवन्ति न कदाचिदक्षनिमेषमात्रमपि न भवन्ति शुभा वा भवन्त्यतो नित्या इत्युच्यन्ते ॥ अर्थ — भूमिक्रमके अनुसार नीचे नीचेके नरकोंका निर्माणक्रमसे अधिक अधिक अशुभ होता गया है । रत्नप्रभा भूमिके नरकोंका निर्माण अशुभ है, परन्तु शर्कराप्रभाके नरकोंका निर्माण उससे कहीं अधिक अशुभ है, तथा वालुकाप्रभाके नरकों का निर्माण उससे भी अधिक अशुभ है, और उससे भी अधिक पंकप्रभाके नरकों का एवं उससे भी अधिक धूमप्रभाके नरकोंका तथा उससे भी अधिक तमः प्रभाके नरकोंका निर्माण है । महातमः प्रभा के नरकोंका निर्माण सबसे अधिक अशुभ है । भावार्थ-प्रथमादिक भूमियोंके पटलोंमें जितने सीमन्तकसे लेकर अप्रतिष्ठान पर्यन्त नरक हैं, उनका संस्थान - आकृति - रचना उत्तरोत्तर अधिकाधिक अशुभ है- भयानक है । यद्यपि यहाँपर सूत्रमें अशुभतर शब्दका ही पाठ है, अशुभ शब्दका पाठ नहीं है, परन्तु फिर भी एक शेषकी अपेक्षा से उसका भी पाठ समझ लेना चाहिये। इसी तरह इस सूत्र में नरक और नारक दोनोंका ही ग्रहण है । क्योंकि नरकोंका तो प्रकरण ही है, और सूत्रमें लेश्या आदिका ग्रहण किया है जोकि नारक जीवोंके ही संभव हैं । अतएव भाष्यकारने सूत्रमें संस्थान शब्दका उल्लेख न रहते हुए भी उसकी अशुभ अशुभतरताका वर्णन किया है । सूत्रमें नित्य शब्द जो आया है, वह आभीक्ष्ण्यवाची है - निरंतर अर्थको दिखाता है । जिस तरह किसीके लिये यह कहना कि, यह मनुष्य नित्य - हमेशा हँसता ही रहता है, अथवा केवल जल पीकर ही रहता है । यहाँपर वह हँसने के सिवाय और भी काम करता हैं, अथवा जलके सिवाय और चीज भी खाता पीता है, परन्तु उसकी अपेक्षा नहीं है । इसी प्रकार प्रकृत में भी समझना चाहिये । नारकजीवों की अशुभतर लेश्या आदिक अपरिणामी नहीं हैं । फिर भी इस नित्य शब्द के ग्रहणसे यही अर्थ समझना चाहिये, कि गति जाति शरीर आङ्गोपाङ्ग आदि नामकर्मो का जो यहाँपर उदय होता है, उसके नियमानुसार नरकगति और नरकजातिमें जो नारकजीवों के लेश्या परिणाम आदि होते हैं, वे नियमसे निरन्तर १ - पुस्तकान्तरे " तेषु नारका " इत्यप्यधिकः पाठः । २ -- जिस समय तीर्थंकर जन्म लेते हैं, उस समय कुछ क्षण के लिये - अन्तर्मुहूत के लिये नारकजीवोंका भी दुःख छूट जाता है, और उन्हें सुखका अनुभव होता है, ऐसा आगमका कथन है । सो नित्य शब्दके आमीक्ष्ण्यवाची रहनेसे घटित होता है । अथवा टीकाकारके ही कथनानुसार राज्ञावान्यगं नित्यं इस सूत्र का सम्बन्ध भी किया जा सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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