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________________ १४२ रायचन्द्रनैनशास्त्रमालायास [ तृतीयोऽध्यायः अयः कोष्ठ आदि पकाने वर्तन प्रसिद्ध हैं, उनका जैसा आकार हैं, वैसा ही आकार इन नरकोंका होता है । इन भाण्ड विशेषोंमें पकनेवाले अन्न के समान नारक जीव जो इन नरकोंमें रहते हैं, उन्हें क्षणभरके लिये भी स्थिरता या सुखका अनुभव नहीं होता । इन नरकोंके नीचेका तल भाग वज्रमय है, और इन सभी नरकों के मध्य में एक इन्द्रक नरक होता है, जिनमें से सबसे पहले इन्द्रकका नाम सीमन्तक है । पहली रत्नप्रभा भूमिके तेरह पटल हैं । उनमें से पहले पटलमें दिशाओं की तरफ ४९ ४९ और विदिशाओंकी तरफ ४८-४८ नरक हैं, मध्यमें एक सीमन्तक नामका इन्द्रक नरक है । इनकी संख्या सप्तम भूमितक क्रमसे एक एक कम होती गई है । दिशा और विदिशाओं के सिवाय कुछ प्रकीर्णक नरक भी होते हैं । रौरव I अच्युत रौद्र हाहारव घातन शोचन तापन क्रन्दन विलपन छेदन भेदन खटाखट कालपिञ्जर इत्यादिक उन नरकों के नाम हैं, जो कि कर्णकटु होने के सिवाय स्वभावसे ही महा अशुभ हैं। सातवीं भूमिमें केवल पाँच ही नरक हैं। क्योंकि उसमें विदिशाओं में कोई नरक नहीं है । चार दिशाओं में चार और एक इन्द्रक इस तरह कुल पाँच हैं, जिनके कि क्रमसे ये नाम हैं - काल महाकाल रौरव व महारौरव और अप्रतिष्ठान । अप्रतिष्ठान यह सातवीं भूमिके अन्तिम इन्द्रक नरकका नाम है । अप्रतिष्ठान नरक से पूर्वमें काल पश्चिममें महाकाल दक्षिणमें रौरव और उत्तर में महारौरव है । रत्नप्रभा भूमिके नरकोंके तेरह पटल बताये हैं । इनकी रचना इस तरह समझनी चाहिये, जैसे कि किसी एक मकानमें अनेक माले होते हैं । द्वितीयादि भूमियों के पटलों की संख्या क्रमसे दो दो हीन है । अर्थात् शर्कराप्रभाके ग्यारह बालुकाप्रभाके नौ पंकप्रभा के सात धूमप्रभाके पाँच तमःप्रभाके तीन और महातमःप्रभाका एक ही पटल है । इन पटलोंमें नरक कितने कितने हैं, सो इस प्रकार समझने चाहिये । -- रत्नप्रभा में तीस लाख, शर्कराप्रभामें पच्चीस लाख, बालुकाप्रभामें पंद्रह लाख, पंकप्रभा में दस लाख, धूमप्रभा में तीन लाख, तमः प्रभामें पाँच कम एकलाख, और महातमःप्रभामें केवल पाँच नरक हैं । सातों भूमियों के सत्र पटलों के दिशा विदिशा प्रकीर्णक और इन्द्रकों को मिलाकर कुल चौरासी लाख नरक हैं । इनमें से सातवीं भमिके अप्रतिष्ठान नामक इन्द्रक नरकका प्रमाण जम्बूद्वीप के समान एक लाख योजनका है, और बाकी नरकों में कोई संख्यात हजार और कोई असंख्यात हजार योजनके प्रमाणवाले हैं । महान् पापके उदयसे जीव इन नरकोंमें जाकर उत्पन्न होते हैं । ये नित्य ही अन्धकार दुर्गन्धमय और दुःखोंके स्थान हैं । इनका आकार गोल तिकोना चतुष्कोण आदि अनेक प्रकारका होता है । 1 इन नरकों में उत्पन्न होनेवाले और रहनेवाले नारकजीवों का विशेष स्वरूप बतानेके लिये सूत्र कहते हैं: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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