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________________ सूत्र १-२।] सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । छत्रके समान है। जिस प्रकार एकके नीचे दूसरा और दूसरेके नीचे तीसरा इसी तरह सात छत्र ऊपर नीचे-तर ऊपर लगानेसे जो आकार हो, वैसा ही आकार सातों पृथिवियोंका समझना चाहिये । तथा इन पृथिवियोंके क्रमसे धर्मा वंशा शैला अञ्जना अरिष्टा माघव्या और माघवी ये नाम हैं । पहली रत्नप्रभा पृथिवी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है। बाकी द्वितीयादिक पृथिवी क्रमसे एक लाख बत्तीस हजार, एक लाख अट्ठाईस हजार, एक लाख बीस हजार, एक लाख अठारह हजार, एक लाख सोलह हजार, और एक लाख आठ हजार योजनकी मोटी हैं। सभी घनोदधि बीस हजार योजन मोटे हैं। तथा घनवातवलय और तनुवातवलय भी असंख्यात हजार योजन मोटे हैं, परन्तु सभीकी मोटाई नीचे नीचेके भागमें अधिकाधिक है। भावार्थ-अधोलोकवर्ती इन सात पृथिवियोंकी और उसके आधारभत वातवलयोंकी संज्ञा संख्या परिणाम संस्थान प्रभा आदिक सभी अनादि है। यहाँपर जो कुछ वर्णन किया है, वह सामान्य है, जिनको इनका विशेष स्वरूप देखना हो, उन्हे लोक-स्वरूपके प्रतिपादक ग्रंथोंको देखना चाहिये । यहाँपर जो प्रश्न किया था, वह नरकोंके विषयमें ही था, अतएव उसीके सम्बन्धमें अधोलोकका यह संक्षिप्त वर्णन किया है। अब यह बताना चाहते हैं, कि वे नरक कहाँपर हैं, कि जिनमें नारक-जीवोंका निवास पाया जाता है। इसीके लिये आगे सूत्र कहते हैं: सूत्र-तासु नरकाः ॥२॥ भाष्यम्-तासु रत्नप्रभाद्यासु भूपूर्ध्वमधश्चैकशो योजनसहस्रमेकैकं वर्जयित्वा मध्ये नरका भवन्ति । तद्यथा-उष्ट्रिकापिष्ट पचनीलोहीकरकेन्द्रजानुकाजन्तोकायस्कुम्भायः कोष्ठादिसंस्थाना वज्रतलाः सीमन्तकोपकान्ता रौरवोऽच्युतो रौद्रो हाहारवोघातनः शोचनस्ता. पनः कन्दनोविलपनश्छेदनोभेदनः खटाखटः कालपिञ्जर इत्येवमाया अशुभनामानः कालमहाकालरौरवमहारौरवाप्रतिष्ठानपर्यन्ताः। रत्नप्रभायां नरकाणां प्रस्तारास्त्रयोदश। द्विद्वयूनाः शेषासु । रत्नप्रभायां नरकवासानां त्रिंशच्छतसहस्राणि । शेषासु पञ्चविंशतिः पञ्चदश दश त्रीण्येक पश्चोनं नरक शतसहस्त्रमित्याषष्ठयाः। सप्तम्यां तु पश्चैव महानरका इति॥ अर्थ-रत्नप्रभा आदिक उपर्युक्त पृथिवियों में ही नरकोंके आवास हैं । परन्तु वे आवास उन प्रत्येक पृथिवियोंके ऊपर और नीचे के एक एक हजार योजनका भाग छोड़कर मध्यके भागेमें हैं । उष्ट्रिका पिष्टपचनी लोही करका इन्द्रजानुका जन्तोक आयकुम्भ १-भूमिषु इत्यपि पाठः । २-एक एक हजार योजन ऊपर नीचे छोड़ने के लिये जो कहा है, सो पहली पृथिवीसे लेकर छठी तकके लिये ही समझना चाहिये। सातवीं पथिवीका प्रमाण एक लाख आठ हजार योजनका है; उसमेंसे ५२५०० ऊपर और उतने ही योजन नीचेका भाग छोड़कर मध्यका भाग ३ हजार योजनका बचता है, उसीमें नरक हैं । भाष्यकारने एक सातवीं पृथिवीके नरकस्थानको बतानेकी अपेक्षा नहीं रक्खी हैं, क्योंकि वह बाहुल्य नहीं रखता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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