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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [तृतीयोऽध्यायः रहते हैं-जबतक उन जीवोंका वह भव पूर्ण नहीं होता, तबतक वे रहते ही हैं । आँखका पलक मारनेमें जितना समय लगता है, उतनी देरके लिये भी वे शुभरूप परिणमन नहीं करते और न उन कर्मोंके उदयका अभाव ही होता है। अतएव इनको नित्य शब्दसे कहा है।
लेश्या आदिक अशुभ अशुभतर किस प्रकार हैं ? इस बातको दिखानेके लिये भाप्यकार स्पष्ट करते हैं:
भाष्यम्-अशुभतरलेश्याः ।-कापोतलेश्या रत्नप्रभायाम्, ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना कापोता शर्कराप्रभायाम्, ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना कापोतनीला वालुकाप्रभायाम् । ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना नीला पंकप्रभायाम्, ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना नीलकृष्णा घूमप्रभायाम् । ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना कृष्णा तमःप्रभायाम् । ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना कृष्णैव महातमाप्रभायामिति ।
__ अशुभतरपरिणामः ।-बन्धनगतिसंस्थानभेदवर्णगंधरसस्पर्शागुरुलघुशब्दाख्यो दश विधोऽशुभः पुद्गलपरिणामो नरकेषु । अशुभतरश्चाधोऽधः । तिर्यगूर्ध्वमधश्च सर्वतोऽनन्तेन भयानकेन नित्योत्तमकेन तमसा नित्यान्धकाराः श्लेष्ममूत्रपुरीषस्रोतोमल रुधिरवसामेदपूयानुलेपनतलाः स्मशानमिव पूतिमांसकेशास्थिचर्मदन्तरवास्तीर्णभूमयः । श्वश्रृगालमार्जार नकुलसर्पमूषकहस्त्यश्वगोमानुषशवकोष्ठाशुभतरगंधाः । हा मातर्धिगहो कष्टं बत मुश्च तावद्धावत प्रसीदभर्तर्मा वधीः कृपणकमित्यनुबद्धरुदितैस्तीनकरुणैर्दीनविक्लवैर्विलांपैरार्तस्वरैनिनादैनिकृपण करुणैर्याचितैर्वाष्पसंनिरुद्धैर्निस्तनितैर्गाढवेदनैः कूजितः सन्तापोष्णैश्चनिश्वासैरनुपरतभयस्वनाः॥
अर्थ-उपर्युक्त नरकोंमें रहनेवाले जीवोंकी लेश्याएं हमेशा अशुभ ही रहती हैं। और नीचे नीचेके नरकोंकी लेश्याएं क्रमसे और भी अधिकाधिक अशुभतर अशुभतर हैं। अर्थात्-पहली रत्नप्रभा भूमिके नरकोंमें-~-जीवोंके कापोतलेश्या है । दूसरी भूमि शर्कराप्रभा भी कापोतलेश्या ही है, परन्तु रत्नप्रभाकी कापोतलेश्याके अध्यवसान जैसे संक्लेशरूप होते हैं, उससे दूसरी भूमिकी कापोतलेश्याके अध्यवसान अधिक संक्लेशरूप हैं । इसी तरह तीसरी आदि भूमियोंके विषयमें भी समझना चाहिये । अर्थात् बालुकाप्रभाग कापोत और नलिलेश्या है, उनके अध्यवसानोंकी संक्लेशता शर्कराप्रभासे अधिक तीव्र है । पङ्कप्रभाग नीललेश्या है, उसके संक्लेशरूप अध्यवसान बालुकाप्रभाकी नीललेश्याके अध्यवसानोंसे अधिक तीव्र हैं । धूमप्रभा नील और कृष्ण लेश्या है, उसके संक्लेशरूप अध्यवसान पंकप्रभाकी नीललेश्याके अध्यवसानोंसे अधिक तीव्र हैं । तमःप्रभामें कृष्णलेश्या है, उसके संक्लेशरूप अध्यवसान धूमप्रभाके अध्यवसानोंसे अधिक तीव्र हैं, और महातमःप्रभामें केवल कृष्णलेश्या ही है, उसके संक्लेशरूप अध्यवसान तमःप्रभाके अध्यवसानोंसे भी अधिक तीव्र हैं।
भावार्थ---नीचे नीचेके नरकोंमें उत्तरोत्तर अधिक अधिक अशुभ लेश्याएं होती गई हैं । यही बात परिणामादिकके विषयमें भी समझनी चाहिये, यथा----
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