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________________ तृतीयोऽध्यायः । भाष्यम् – अत्राह-उक्तं भवता नारका इति गतिं प्रतीत्य जीवस्यौदयिको भावः । तथा जन्मसु नारक देवानामुपपातः । वक्ष्यति च स्थितौ नारकाणां च द्वितीयादिषु । आस्रवेषु बारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः इति । तत्र के नारका नाम क्क चेति । अत्रोच्यतेनरकेषु भवा नारकाः । तत्र नरकप्रसिद्ध्यर्थमिदमुच्यतेः अर्थ --- प्रश्न- आपने नारक शब्दका अनेक वार उल्लेख किया है । जीवके औदयिकभावोंको गिनाते हुए गतिके भेदोंमें नारकगतिका नाम गिनाया है । तथा जन्मोंका वर्णन करते हुए कहा है कि " नारक और देवोंका उपपातजन्म होता है । " इसी तरह आगे चलकर भी इन शब्दोंका उल्लेख किया है । यथा स्थितिका वर्णन करते हुए " नारकाणां च द्वितीयादिषु ” इस सूत्र में और आस्रवोंको बताते हुए ' बह्वारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः इस सूत्र । सो अभीतक यह नहीं मालूम हुआ कि वे नारक कौन हैं ? और कहाँ पर रहते हैं । अर्थात् पहले और आगे चलकर नारक शब्दका तो अनेक सूत्रोंमें उल्लेख किया, परन्तु किसी भी सूत्रमें उसकी ऐसी व्याख्या करके नहीं बताई, जिससे यह मालूम हो सके, कि नारक अमुकको कहते हैं, और न अभीतक यही बताया गया, कि उनका निवासस्थान कहाँपर है । अतएव कृपाकर कहिये कि नारक कौन हैं, और कहाँपर रहते हैं ? उत्तर - जो नरकोंमें उत्पन्न हों या रहें उनको नारक कहते हैं । इस प्रकार " नारक कौन हैं ? " इसका उत्तर नारक शब्दकी निरुक्तिके द्वारा ही समझमें आजाता है । परन्तु वे नरक कहाँ हैं, और कैसे हैं इत्यादि बातें इससे समझमें नहीं आतीं, अतएव उनको समझाने के लिये ही आगे सूत्र कहते हैं "" १ – कोई कोई, इस सूत्र की उत्थानिकाके लिये कहते हैं, कि गत अध्यायोंमें जीवका सामान्य स्वरूप तो कहा गया और वह समझ में आया, परन्तु उसके नारक आदि विशेष भेदोंका स्वरूप अमीतक नहीं कहा गया । नारक शब्दका अर्थ नरकेषु भवा नारकाः इस निरुक्तिके अनुसार जिस तरह समझमें आ सकता है, उसी प्रकार नरक शब्दका अर्थ भी " नरान् कायन्ति आह्वयन्ति इति नरका: " इस निरुक्ति के अनुसार समझमें आ सकता है । परन्तु यह निरुक्ति केवल व्युत्पत्तिके लिये ही है, इससे कोई अर्थक्रिया-प्रयोजनवत्ता सिद्ध नहीं होती । क्योंकि नरक यह रूढिसंज्ञा है | अतएव वे नरक कहाँ हैं, कितने हैं, कैसे हैं, आदि बताने के लिये सूत्र कहते हैं । इसके सिवाय कोई कोई इसकी उत्थानिका इस प्रकार भी करते हैं, कि आगे चलकर नौवें अध्यायमें सूत्र ३७ के द्वारा संस्थानविचय नामक धर्मध्यानका उल्लेख किया गया है । संस्थानविचयका विषय लोकके स्वरूपका विचार करना है । यथा— लोकस्यास्तिर्यग विचिन्तयेदूर्ध्वमपि च बाहुल्यम् । सर्वत्र जन्ममरणे रूपिद्रव्योपयोगांश्च ॥ ( प्रशमरति श्लोक १६० ) | लोक तीन भागोंमें विभक्त है, और वही जीवों के रहनेका अधिकरण है । अतएव उसका वर्णन करनेमें ऊर्ध्वलोक और मध्यलोकके पहले अधोलोकका वर्णन क्रमप्राप्त है, इसी लिये अधोलोकका स्वरूप बतानेके लिये यहाँ सूत्र करते हैं। इसके अनंतर इसी अध्यायमें तिर्यग्लोक मध्यलोक और चतुर्थ अध्याय में ऊर्ध्वलोकका वर्णन करेंगे। १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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