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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[द्वितीयोऽध्यायः
अपवर्तनका अर्थ अभुक्तकर्म नहीं है। इसी बातको और भी दृष्टान्त देकर भाष्यकार स्पष्ट करते हैं:
जिस प्रकार किसी वस्त्रको जलसे धोया जाय, और उससे भीगा हुआ ही घरी करके रख दिया जाय, तो वह चिरकालमें सूख पाता है । परन्तु उसीको यदि फैला दिया जाय, तो सूर्यकी किरणोंसे और वायुसे ताडित होकर शीघ्र ही वह सूख जाता है । उस घरी किये हुए वस्त्रमें कोई ऐसा नवीन स्नेह-जल आ नहीं गया है, जो कि पहले उसमें न हो, इसी तरह न फैलाये हुए वस्त्रमें पूर्ण शोष नहीं हुआ हो यही बात है । किंत दोनों ही अवस्थाओंमें जलके अवयवोंका प्रमाण बराबर ही है। अन्तर इतना ही है, कि एकका शोष अधिक कालमें होता है, और दुसरेका उपक्रमवश शीघ्र ही-अल्पकालमें ही हो जाता है। इसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये । पूर्वोक्त अपवर्तनके निमित्तोंसे कर्मका फलोपभोग शीघ्र ही होजाता है, यही अपवर्तनका स्वरूप है। इसमें कृतनाश अकृतागम और निष्फलताका प्रसङ्ग आता है यह बात नहीं है।
इति तत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसन्ग्रहे द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः॥
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