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________________ सूत्र ५२ । ] संभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १३५ अपवर्तन माननेमें चार दोष उपस्थित होते हैं, अतएव यही कहना चाहिये कि उसका अपवर्तन नहीं होता। फिर आप किस तरह कहते हैं, कि आयुका अपवर्तन होता है ? उत्तर- - कृतनाश अकृतागम और निष्फलता ये तीन दोष जो कर्मके विषयमें दिये हैं, वे ठीक नहीं हैं । इसी प्रकार चौथा दोष जो यह दिया है, कि आयुकर्म जात्यन्तरानुबन्धिठहरेगा, सो भी उचित नहीं है । जैन सिद्धान्तमें अपवर्तनका जो स्वरूप माना है, उसके न समझने के कारण ही ये दोष प्रतीत होते हैं । पूर्वोक्त उपक्रमों - विष शस्त्रादिक कारणविशेषोंसे अभिहत- ताडित-उपद्रुत होकर आयुकर्म सर्वात्मना उदयको प्राप्त होकर शीघ्र ही पक जाताअपने फलका अनुभव करा देता है, इसीको अपवर्तन कहते हैं । जिस प्रकार शुष्क भी तृणराशि-ईन्धन यदि संहत हो, आपसमें दृढ़ सम्बद्ध हो, और क्रमसे उनका एक एक अवयव जलाया जाय, तो चिरकालमें उसका दाह हो पाता है, परन्तु यदि उसका बन्धन शिथिल हो और उस सबको अलग अलग करके एक साथ जलाया जाय, तथा वायुरूपी उपक्रमसे वह अभिहत हो, तो फिर उसके जलनेमें देर नहीं लगती - शीघ्र ही वह जलकर भस्म होजाता है । इसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये । अथवा जिस प्रकार कोई गणितशास्त्रका विद्वान् आचार्य सुगमतासे और जल्दी हिसाब निकल आवे, इसके लिये गुणाकार भागहार के द्वारा राशिका छेद करके अपवर्तन कर देता है, तो उससे संख्येय अर्थका अभाव नहीं हो जाता, इसी प्रकार यहाँपर भी समझना चाहिये । उपक्रमोंसे अभिहत हुआ और मरणसमुद्धातके दु:खोंसे पीड़ित हुआ प्राणी कर्म है, कारण जिसका ऐसे अपवर्तन नामक करणविशेषको अनाभोग - अत्यन्त अपरिज्ञानरूप - जो अनुभवमें न आ सके, ऐसे योग - चेष्टाविशेषपूर्वक उत्पन्न करके शीघ्रता से फलोपभोग होजाने के लिये कर्मका अपवर्तन किया करता है, इससे उसके फलका अभाव सिद्ध नहीं होता । अर्थात् मरण के समय कुछ पूर्व जो समुद्घात होता है, उसको मरणसमुद्घात कहते हैं, उस समय शरीर से आत्मप्रदेशोंका जो अपकर्ष होता है, वह चैतन्य रहित - मूच्छित होता है, अतएव वह प्राणी बाह्य चेष्टाओंसे शून्य और अव्यक्त बोधको धारण करनेवाला हुआ करता है । इस तरहकी ज्ञान रहित अवस्थामें ही वह कर्मका अपवर्तन किया करता है । अपवर्तन भी जान पूछकर नहीं करता, किंतु जिस प्रकार उपयुक्त आहारके रसादिक परिणमन निमित्तानुसार स्वतः ही हो जाया करते हैं, उसी प्रकार अपवर्तन के विषय में भी समझना चाहिये । इस अपवर्तन के होनेसे आयुकर्मके फलका अभाव नहीं समझना चाहिये। अनपवर्तित और अपवर्तितमें अन्तर इतना ही है, कि पहलेमें तो पूर्ण स्थितितक उसका क्रमसे परिभोग होता है, अतएव उसका काल अधिक है, किन्तु दूसरे में संकुचित होकर चारों तरफ से एक साथ भोगने में आजाता है, इसलिये उसका काल थोड़ा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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