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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीयोऽध्यायः नहीं बनाया जा सकता; अथवा जिस प्रकार किसी आम्र आदिके पकनेकी स्थिति पाल आदिमें देनेसे घट सकती है, परन्तु उसकी नियत स्थिति किसी भी कारणसे बढ़ नहीं सकती । उसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये । अतएव जो यह समझते हैं, कि योग आदिके निमित्तसे अथवा किसी रसायनके सेवन करनेसे आयु बढ़ भी जाती है, यह बात मिथ्या है । क्योंकि भुज्यमान आयुका बंध पूर्वजन्ममें ही होता है, उसी समय उसकी स्थितिका भी बंध हो जाता है । अतएव उदयकाल आनेपर उसमें वृद्धिकी संभावना कैसे हो सकती है; हाँ, यह हो सकता है, कि बंधे हुए कर्म निमित्त पाकर आत्मासे जल्दी सम्बन्ध छोड दें। इसलिये यह निश्चित है, कि चाहे अमृतका ही सेवन क्यों न किया जाय, परन्तु भुज्यमान आयुकी स्थिति बढ़ नहीं सकती । इसी लिये इस प्रकारके प्रवादोंको भी सर्वथा मिथ्या समझना चाहिये, कि अमुक व्यक्ति अनन्तकालके लिये सशरीर अमर हो गया है। इस प्रकार अनपवर्तनीय आयुके सोपक्रम और निरुपक्रम ये दो भेद समझने चाहिये । किंतु अपवर्तनीय आयु नियमसे सोपक्रम ही हुआ करती है। इस उपर्युक्त सम्पूर्ण कथनका सारांश केवल इतना कह देनेसे ही समझमें आसकता है, कि अमुक अमुक जीवोंकी आयु अनपवर्त्य हुआ करती है। क्योंकि शेष जीवोंके दूसरा भेद-अपवर्त्य पारिशेष्यसे ही समझमें आसकता है। अतएव आचार्य इसी बातको सूत्रद्वारा बताते हैं:सूत्र-औपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषासंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ५२ भाष्यम्-औपपातिकाश्चरमदेहा उत्तमपुरुषाः असंख्येयवर्षायुष इत्येतेऽनपवायुषो भवन्ति । तत्रौपपातिका नारकदेवाश्चेत्युक्तम् । चरमदेहा मनुष्या एव भवन्ति नान्ये। चरमदेहा अन्त्यदेहा इत्यर्थः । ये तेनैव शरीरेण सिध्यन्ति । उत्तमपुरुषास्तीर्थकरचक्रवर्त्यर्धचक्रवर्तिनः । असंख्येयवर्षायुषो मनुष्याः तिर्यग्योनिजाश्च भवन्ति । सदेवकुरुत्तरकुरुषु सान्तर द्वीपकास्वकर्मभूमिषु कर्मभूमिषु च सुषससुषमायां सुषमायां सुषमदुःषमायामित्यसंख्येयवर्षायुषो मनुष्या भवन्ति । अत्रैव बाह्येषु द्वीपेषु समुद्रेषु तिर्यग्योनिजा असंख्येयवर्षायुषो भवन्ति । औषपातिकाश्चासंख्येयवर्षायुषश्च निरुपक्रमाः । चरमदेहाः सोपक्रमाः निरूपक्रमाश्चति । एभ्य औपपातिकचरमदेहासंख्येयवर्षायुर्व्यः शेषाः मनुष्यास्तिर्यग्यो. निजाः सोपक्रमा निरुपकमाश्चापवायुषोऽनपवायुषश्च भवन्ति । तत्रयेऽपवायुषस्तेषां विषशस्त्रकण्टकाग्न्युदकाशिताजीर्णाशनिप्रपातोद्वन्धनश्वापदवज्रनिर्घातादिभिः क्षुत्पिपासाशीतोष्णादिभिश्च द्वन्द्वोपक्रमैरायुरपवर्त्यते । अपवर्त्तनं शीघ्रमन्तर्मुहूतात्कर्मफलोपभोगः। उपक्रमोऽपवर्तननिमित्तम् । ___ अर्थ-उपपातजन्मवाले तथा चरमशरीरके धारक और उत्तम पुरुष एवं असंख्यात वर्षकी जिनकी आयु हुआ करती है, इतने जीवोंकी आयु अनपवर्त्य समझनी चाहिये । नारक और देव उपपातजन्मवाले हैं, यह बात पहले बताई जा चुकी है । चरमशरीरके धारक १-जैसा कि किसी किसी धर्मवालोंने कृप परशुराम बलि व्यास और अश्वत्थामा आदिको अमर माना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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