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________________ सूत्र ५१।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । अर्थ-प्रश्न-चतुर्गतिरूप संसारमें आयुके विषयमें क्या नियम है ? चारों ही गतिमें उसकी स्थिति व्यवस्थित है, अथवा अकालमृत्यु भी हुआ करती है ? अर्थात् पूर्वजन्ममें आयु. कर्मकी जितनी स्थिति बाँधी थी, उसका उदयकाल आनेपर उस स्थितिका पूर्णरूपमें उदय हो जानेपर ही जीवका मरण होता है, अथवा उस स्थितिके पूर्ण न होनेपर भी होता है ? उत्तरआयुकर्म दो प्रकारके हुआ करते हैं-एक अपवर्तनीय दसरे अनपवर्तनीय । अनपवर्तनीयके भी दो भेद हैं-एक सोपक्रम दूसरा निरुपक्रम । अपवर्तनीय आयुकर्म नियमसे सोपक्रम ही हुआ करते हैं। भावार्थ--इस प्रश्नके करनेका कारण यह है, कि इस विषयमें लोकमें दोनों ही प्रकारके प्रवाद सुननेमें आते हैं, कोई कहता है, कि आयुकर्मकी जितनी स्थिति पूर्वजन्ममें बाँधी है, उतनी पूर्ण भोग चुकनेपर ही मरण हुआ करता है, और कोई कहता है, कि अस्त्र शस्त्रके घात आदिके द्वारा स्थिति पूर्ण होनेसे पहले भी मरण हो जाता है । अतएव संशयमें पड़कर शिष्यने यह प्रश्न किया है, कि इस विषयमें कैसा नियम समझना चाहिये ? इसके उत्तरमें अकालमृत्युका होना भी संभव है, यह बतानेके लिये भाष्यकार कहते हैं, कि चतुर्गतिरूप संसारमें आयुकर्म दोनों ही प्रकारके पाये जाते हैं-एक अपवर्तनीय दूसरे अनपवर्तनीय । जिसकी स्थिति पूर्ण होनेके पहले ही समाप्ति हो जाती है, उसको अपवर्तनीय कहते हैं, और जिसकी स्थिति पूर्ण होनेपर ही समाप्ति हो, उसको अनपवर्तनीय कहते हैं । अपवर्तनीय आयुका उदय होनेपर अकालमरण भी हो सकता है। जिन अध्ययसानादिक कारण विशेषोंके द्वारा आयुकर्मकी अतिदीर्घ कालकी भी स्थिति घटकर अल्पकालकी हो सकती है, उन कारणकलापोंको ही उपक्रम कहते हैं। ऐसे कारण. कलाप जिस आयके साथ लगे हुए हों, उसको सोपक्रम और जिसके साथ वे न पाये जाय उसको निरुपक्रम कहते हैं । यहाँपर यह शंका हो सकती है, कि अनपवर्तनीय और सोपक्रम ये दोनों ही बातें परस्पर विरुद्ध हैं। क्योंकि जो आयु अनपवर्त्य है, वही सोपक्रम कैसे हो सकती है ? परन्तु यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि उस आयुके साथ वैसे कारणकलाप तो लगे रहते हैं, परन्तु फिर भी उसका अपवर्तन नहीं हुआ करता । क्योंकि चरम • देह तथा उत्तम पुरुषोंकी आयुका बन्धन इतना गाढ़ हुआ करता है, कि वे कारण मिलकर भी उसको शिथिल नहीं बना सकते । __ यहाँपर किसीको यह भी शंका हो सकती है, कि जिस प्रकार कारणविशेषके द्वारा आयुकी दीर्घस्थिति अल्प बनाई जा सकती या हो सकती है, उसी प्रकार किसी कारणविशेषके द्वारा उसकी अल्प स्थिति दीर्घ भी की जा सकती है। परन्तु यह बात नहीं है । जिस प्रकार किसी वस्त्रको घड़ी करके छोटा बनाया जा सकता है, परन्तु उसके प्रमाणसे बड़ा किसी भी तरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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